06-Oct-2025
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अहमद नदीम क़ासमी: वो दरिया जो अदब के समंदर में उतर गया

अहमद नदीम क़ासमी, उर्दू अदब का वो नाम, जिसने अपने लफ़्ज़ों से इंसानियत की तर्जुमानी की। उन्होंने ‘फ़नून’ जैसी मशहूर अदबी पत्रिका की नींव रखी, जिसने अहमद फ़राज़, परवीन शाकिर और गुलज़ार जैसे फ़नकारों को दिशा दी।


कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊंगा? 
मैं तो दरिया हूं समुंदर में उतर जाऊंगा।’

अहमद नदीम क़ासमी

ये शेर सिर्फ़ एक ऐलान नहीं है, ये उस शख़्सियत के वजूद का इज़हार है जिसने अपनी पूरी ज़िंदगी अदब के लिए वक़्फ़ कर दी। हम बात कर रहे हैं अहमद नदीम क़ासमी की। एक नाम, जो सिर्फ़ शायर या अफ़्साना निगार नहीं था, बल्कि समकालीन उर्दू अदब का एक चलता-फिरता इदारा था।

क़ासमी साहब को पढ़ना, उर्दू तहज़ीब और पंजाब की ज़मीन को महसूस करना है। उनकी रचनाओं में देहात (गांव) की सोंधी ख़ुशबू है, इंसानी जज़्बों की गहराई है और एक ऐसी सामाजिक चेतना है, जो उन्हें तरक़्क़ी-पसंद तहरीक (Progressive Writers’ Movement) का मज़बूत सिपाही बनाती है।

पैदाइश और इब्तिदाई मंज़िल

क़ासमी साहब की पैदाइश 20 नवंबर 1916 को ब्रिटिश भारत के पंजाब, ख़ुशाब ज़िले के गांव अंगा में हुआ। उनका असल नाम अहमद शाह अवाण था। एक ऐसे ख़ानदान से ताल्लुक रखते थे जो सूफ़ी संतों की रिवायत रखता था। यही वजह है कि उनकी शायरी और नज़्मों में एक इंसान-दोस्ती का पैग़ाम हमेशा झलकता रहा।

‘जिस भी फ़नकार का शहकार हो तुम
उस ने सदियों तुम्हें सोचा होगा’

अहमद नदीम क़ासमी

उन्होंने अपनी तालीम कई मक़ामों पर मुकम्मल की। 1935 में पंजाब यूनिवर्सिटी, लाहौर से ग्रैजुएशन किया। शुरू में उन्होंने एक्साइज़ डिपार्टमेंट में सब-इंस्पेक्टर जैसी सरकारी नौकरियां भी कीं, मगर एक अदीब का दिल दफ़्तर की फ़ाइलों में कब तक क़ैद रहता? 1942 में उन्होंने इस ‘ग़ैर-अदबी’ काम से इस्तीफ़ा दे दिया, क्योंकि उनका मिज़ाज  इसकी इजाज़त नहीं देता था।

क़लम की नोक पर ज़िंदगी

क़ासमी साहब का असली सफ़र तब शुरू हुआ जब वो लाहौर के अदबी माहौल में पूरी तरह डूब गए। वो उस दौर में थे जब मंटो, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, और इम्तियाज़ अली ताज जैसे दिग्ग़ज अपनी क़लम से इतिहास लिख रहे थे। लाहौर आकर उन्होंने ‘तहज़ीब-ए-निसवां’ और बच्चों के रिसाले ‘फूल’ का सम्पादन किया। उनका सम्पादकीय सफ़र यहीं नहीं रुका। उन्होंने ‘अदब-ए-लतीफ़’, ‘सवेरा’, ‘नक़ूश’ जैसे मशहूर रिसालों के साथ काम किया और रोज़नामचा (दैनिक समाचार पत्र) ‘डेली इमरोज़’ के सम्पादक भी रहे।

‘ख़ुदा करे कि तिरी उम्र में गिने जाएं
वो दिन जो हम ने तिरे हिज्र में गुज़ारे थे’

अहमद नदीम क़ासमी

लेकिन जिस चीज़ ने उन्हें एक ‘अदबी सरदार’ का दर्जा दिया, वो थी उनकी अपनी पत्रिका— ‘फ़नून’। 1962 में शुरू हुआ ये रिसाला क़ासमी साहब के वजूद का हिस्सा बन गया। उन्होंने करीब अर्द्ध-शताब्दी (आधा शतक) तक ‘फ़नून’ को पूरी लगन और तवज्जो के साथ जारी रखा। ये महज़ एक पत्रिका नहीं थी, यह एक ऐसा अदबी डेरा (साहित्यिक केंद्र) था जहां अहमद फ़राज़, परवीन शाकिर, ख़दीजा मस्तूर और हाजरा मसरूर जैसे कितने ही नौजवान अदीबों और शायरों ने परवान चढ़ा। गुलज़ार साहब जैसा बड़ा नाम भी उन्हें अपना ‘उस्ताद’ और ‘गुरु’ कहता था।

तरक़्क़ी-पसंद का सिपाही और अफ़सानों का जादूगर

क़ासमी साहब तरक़्क़ी-पसंद मुसन्निफ़ीन (Progressive Writers) की तहरीक के एक मज़बूत रुक्न थे। उन्होंने 1949 में पाकिस्तान में इस अंजुमन के सेक्रेटरी जनरल का ओहदा भी संभाला। उनकी तहरीक (लेखन) में महज़ फ़नकारी नहीं थी, बल्कि एक मक़सद था। ग़रीब और मज़लूम इंसान के हक़ में आवाज़ उठाना। यही वजह थी कि उन्हें सत्ता-विरोधी सरगर्मियों के इल्ज़ाम में कई बार क़ैद भी झेलनी पड़ी।

ग़ज़ल और नज़्म के मैदान में उनके काम को ‘जलाल-ओ-जमाल’, ‘दस्त-ए-वफ़ा’ जैसी किताबों में देखा जा सकता है, जो उनके इंसानियत-परस्त नज़रीये को पेश करती हैं। लेकिन जहां तक उनकी शोहरत और अहमियत का सवाल है, वह उनके अफ़सानों (Short Stories) में सबसे ज़्यादा दिखाई देती है। उनके अफ़सानों का मौज़ू (विषय) हमेशा देहाती ज़िंदगी, ज़मीन से जुड़े हुए लोग और उनके मसाइल (समस्याएं) रहे हैं। उनका संकलन ‘चौपाल’ (1939) इस सिम्त (दिशा) में एक मील का पत्थर है।

तंक़ीद और तअल्लुक़ात की पेंच-ओ-ख़म (जटिलता)

क़ासमी साहब की ज़िंदगी और अदबी सफ़र सिर्फ़ तारीफ़ों से भरा नहीं रहा। कुछ आलोचकों ने उनके ‘नार्सिसिस्टिक’ (Narcissistic) व्यक्तित्व और समकालीन शायरों, ख़ासकर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के प्रति उनके कथित ‘दफ़नशुदा नापसंदगी’ पर भी उंगलियां उठाई हैं। प्रोफ़ेसर फ़तेह मुहम्मद मलिक की किताब ‘नदीम शनासी’ में मौजूद क़ासमी साहब के ख़तूत (पत्र) इसी ओर इशारा करते हैं। ये शायद हर बड़े अदीब की क़िस्मत होती है कि उसकी तारीफ़ के साथ-साथ उसकी ज़ाती और अदबी रक़ाबत भी चर्चा का मौज़ू बनती है।

आख़िरी सफ़र और विरासत 

अहमद नदीम क़ासमी का इंतिक़ाल 10 जुलाई 2006 को लाहौर में अस्थमा की पेचीदगियों की वजह से हुआ। उनकी मौत से उर्दू अदब के एक शानदार दौर का ख़ात्मा हुआ। अपनी ज़िंदगी में उन्हें उनकी अदबी ख़िदमात के लिए पाकिस्तान के सबसे बड़े एज़ाज़ात से नवाज़ा गया। उन्हें 1968 में ‘प्राइड ऑफ परफॉर्मेंस’ और 1980 में ‘सितारा-ए-इम्तियाज़’ से नवाज़ा गया। यह उनकी क़लम की ताक़त का सुबूत है। इस्लामाबाद की 7वीं एवेन्यू का नाम उनके नाम पर रखा जाना भी उनकी क़द-ओ-क़ामत (ऊंचाई और महत्व) को दर्शाता है।

अहमद नदीम क़ासमी एक दरिया थे जो अपनी रवानगी में इंसानियत का पैग़ाम लेकर चले और उर्दू अदब के समंदर में उतर गए। वह आज भी अपनी शायरी, अपने अफ़सानों, और अपनी पत्रिका ‘फ़नून’ की विरासत के ज़रिए ज़िंदा हैं। उनकी एक नज़्म के मतले से बात ख़त्म करते हैं, जो उनकी फ़नकारी की सादगी और गहराई बयान करती है:

दावर-ए-हश्र मुझे तेरी क़सम
उम्र भर में ने इबादत की है

तू मिरा नामा-ए-आमाल तो देख
मैं ने इंसां से मोहब्बत की है

अहमद नदीम क़ासमी

यही थी अहमद नदीम क़ासमी की इबादत, और यही उनका अदब।

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