फ़रहत एहसास- यानी फ़रहतुल्लाह ख़ां का नाम उर्दू अदब और सहाफ़त (पत्रकारिता) की दुनिया में गहरी इज़्ज़त और एहतराम के साथ लिया जाता है। उनका सफ़र सिर्फ़ एक तालीमयाफ़्ता शख़्स का नहीं, बल्कि एक ऐसे फ़िक्रमंद दानिश्वर का है जिसने लफ़्ज़ों को ज़रिया बनाकर पूरी तहज़ीब और समाज को नया नज़रिया दिया।
वो अक़्ल-मंद कभी जोश में नहीं आता
फ़रहत एहसास
गले तो लगता है आग़ोश में नहीं आता
बचपन से अलीगढ़ तक का सफ़र
25 दिसंबर 1950 को उत्तर प्रदेश के बहराइच में पैदा हुए फ़रहत एहसास ने अपने इलाक़े की मिट्टी, वहां की बोलियों और तहज़ीब से गहरी वाबस्तगी पाई। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में तालीम हासिल करते हुए उन्होंने अदब, तख़्लीक़ और तफ़क्कुर की अस्ल दुनिया देखी। अलीगढ़ का माहौल उनके लिए एक गुरुकुल और मदरसा-ए-फ़िक्र साबित हुआ, जिसने उनकी शख़्सियत को तराशा।
सहाफ़त का इंक़लाबी दौर
1979 में दिल्ली से निकलने वाले साप्ताहिक हुजूम से उनका सफ़र शुरू हुआ। बतौर सह-संपादक उन्होंने अपने अंदाज़ से ये साबित कर दिया कि उर्दू सहाफ़त सिर्फ़ ख़बरों का ज़रिया नहीं, बल्कि फ़िक्र और तख़्लीक़ का आइना भी है।
1987 में वो क़ौमी आवाज़ से जुड़े और उसके इतवार एडिशन को इस अंदाज़ में संवारा कि उर्दू अदब और तफ़क्कुर की नई राहें खुलीं। ये कहना ग़लत न होगा कि उन्होंने उर्दू सहाफ़त में तख़्लीक़ और तफ़क्कुर के नए मायार क़ायम किए।
अंदर के हादसों पे किसी की नज़र नहीं
फ़रहत एहसास
हम मर चुके हैं और हमें इस की ख़बर नहीं
जामिया और आलमी सफ़र
1998 में उनका सफ़र जामिया मिल्लिया इस्लामिया पहुंचा। यहां वो उर्दू और अंग्रेज़ी की रिसर्च जर्नल्स के सह-संपादक बने। उसी दौरान उन्होंने बी.बी.सी. उर्दू और ऑल इंडिया रेडियो से भी अपने तख़्लीक़ी और फ़िक्री अफ़कार दुनिया तक पहुंचाए।
उनकी वार्ताएं और टिप्पणियां सिर्फ़ सुर्ख़ियां नहीं थीं, बल्कि समाज और इंसान की गहरी समझ का आईना थीं।
अदब और फ़लसफ़े से रिश्ता
फ़रहत एहसास का दायरा उर्दू तक महदूद नहीं। वो हिंदी, ब्रज, अवधी जैसी देसी ज़बानों और अंग्रेज़ी समेत मग़रीबी अदब से भी गहरी दिलचस्पी रखते हैं। भारतीय और मग़रीबी फ़लसफ़े से उनका रिश्ता ऐसा है मानो फ़िक्र की दो नदियां एक समंदर में आकर मिल गई हों।
उनका कहना है कि अदब सिर्फ़ तख़्लीक़ का नाम नहीं, बल्कि ज़िंदगी को समझने और उसे बयान करने का हुनर है।
शायरी की दुनिया
फ़रहत एहसास सिर्फ़ सहाफ़ी और फ़िक्रमंद नहीं, बल्कि एक शायर भी हैं। उनकी शायरी में तन्हाई, इंतिज़ार और इंसानी जज़्बात का समंदर लहराता है। उनके अशआर दिल को छू जाते हैं, जैसे —
इक रात वो गया था जहां बात रोक के
फ़रहत एहसास
अब तक रुका हुआ हूं वहीं रात रोक के
वो चांद कह के गया था कि आज निकलेगा
फ़रहत एहसास
तो इंतिज़ार में बैठा हुआ हूं शाम से मैं
चांद भी हैरान दरिया भी परेशानी में है
फ़रहत एहसास
अक्स किस का है कि इतनी रौशनी पानी में है
ये अशआर उनकी शख़्सियत का वो पहलू खोलते हैं, जिसमें तन्हाई भी है, उम्मीद भी है और जज़्बात की रोशनियों का दरिया भी। और उनकी ये तड़प किस दिल को नहीं छू लेती —
मैं रोना चाहता हूं, ख़ूब रोना चाहता हूं मैं
फ़रहत एहसास
फिर उस के बाद गहरी नींद सोना चाहता हूं मैं
फ़रहत एहसास का सफ़र हमें बताता है कि तख़्लीक़ और तफ़क्कुर का मिलन किसी भी शख़्स को मुक़द्दर बना देता है। वो अदब, सहाफ़त और शायरी—तीनों को अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बनाकर आने वाली नस्लों के लिए एक रौशन मिसाल बने हैं।
किसी हालत में भी तन्हा नहीं होने देती
फ़रहत एहसास
है यही एक ख़राबी मिरी तन्हाई की
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