किश्वर नाहिद-ये महज़ एक नाम नहीं, बल्कि उर्दू शायरी की दुनिया में नारीवादी क्रांति का एक अज़्म है। एक ऐसी आवाज़ जिसने सदियों की ख़ामोशी को चीरते हुए, ज़ोरदार लहज़े में औरतों की बात की। उनकी शायरी महज़ अल्फ़ाज़ का मजमूआ नहीं, बल्कि ज़ुल्म के ख़िलाफ़ एक बग़ावत है, और हर उस औरत के लिए एक मरहम है जिसने समाज की पाबंदियों को झेला है।
हिजरत और हौसले की दास्तान
किश्वर नाहिद की पैदाइश 17 जून 1940 को उत्तर प्रदेश (हिंदुस्तान) के बुलंदशहर के एक रिवायती, मध्यवर्गीय ख़ानदान में हुई। मगर उनकी ज़ीस्त का नक़्श बदल गया 1947 के विभाजन के बाद। सिर्फ़ 9 साल की उम्र में, 1949 में, वो अपने अहल-ए-ख़ाना के साथ लाहौर, पाकिस्तान चली गई। ये हिजरत महज़ एक जगह से दूसरी जगह जाना नहीं था, बल्कि एक नए संघर्ष का आगाज़ था। उस ज़माने में औरतों की तालीम हासिल करना कोई आसान काम नहीं था। मगर किश्वर नाहिद ने हार नहीं मानी। उन्होंने घर पर ही ख़ुद को तालीम दी और पत्राचार पाठ्यक्रमों के ज़रिए हाई स्कूल का डिप्लॉमा हासिल किया। उनकी तालीमी सफ़र की लगन का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी,लाहौर से अर्थशास्त्र में एमए की डिग्री हासिल की।

शायरी का सफ़र: एक नई ‘बुलंद आवाज़’
किश्वर नाहिद की ज़ात और शख़्सियत को उनके उस्ताद मुख़्तार सिद्दीक़ी ने तराशा। उनकी पहली शायरी का मजमूआ (संग्रह), “लब-ए-गोया” (1968), ने उर्दू अदब में एक तूफ़ान बरपा कर दिया। ये महज़ शायरी नहीं थी, बल्कि एक ऐसी “नई बुलन्द आवाज़” थी जिसने औरतों को एक नई पहचान और हौसला दिया।
किश्वर नाहिद की शायरी की सबसे बड़ी ख़ूबी ये है कि वो रिवायती (पारंपरिक) और रोमांटिक मौज़ूआत (विषयों) से हटकर, अस्ल और समकालीन ज़िंदगी के मुद्दों पर बात करती हैं। उनकी नज़्में सियासत, समाज और ख़ास तौर पर औरत-मर्द के रिश्ते की पेचीदगियों को बेबाकी से बयान करती हैं।
‘हमें देखो हमारे पास बैठो हम से कुछ सीखो
किश्वर नाहिद
हमीं ने प्यार मांगा था हमीं ने दाग़ पाए हैं’
ये बुरी औरत की कथा है,‘वो अपनी आत्मकथा में लिखती हैं, और ये लफ़्ज़ ही उनकी शायरी का निचोड़ हैं-जुर्रत, बेबाकी और इंकलाब। किश्वर नाहिद को एक लीडिंग नारीवादी कवयित्री के तौर पर जाना जाता है। उनकी नज़्मों ने जनरल ज़िया-उल-हक़ के फ़ासीवादी सियासी माहौल में ह्यूमन राइट्स और आज़ादी के लिए आवाज़ उठाई। उनकी सबसे मशहूर और दुनिया भर में सराही गई नज़्म है: ‘हम गुनहगार औरतें’
‘दिल में है मुलाक़ात की ख़्वाहिश की दबी आग
किश्वर नाहिद
मेहंदी लगे हाथों को छुपा कर कहां रक्खूं’
ये नज़्म मज़लूमियत का बयान नहीं, बल्कि बग़ावत का तराना बन गई। जब औरतों ने इस नज़्म को अपना तराना बनाया, तो ये विरोध का एक स्थायी प्रतीक बन गई, औरतों की उस जमात का अज़्म जिसने समाज के दस्तूर को तोड़ने की जुर्रत की। इस नज़्म के नाम पर रुखसाना अहमद ने समकालीन उर्दू नारीवादी कविताओं का एक अहम संकलन भी अंग्रेज़ी में तर्जुमा करके शाया किया। उनकी दूसरी मशहूर किताबें जैसे:
‘बेनाम मुसाफ़त’
‘गलियां, धूप, दरवाज़े’
‘बुरी औरत की कथा’
‘वर्क वर्क आईना’
अदबी और इंतिज़ामी ख़िदमात
किश्वर नाहिद की ज़ीस्त महज़ शायरी तक महदूद नहीं रही। उन्होंने इंतिज़ामी (प्रशासनिक) तौर पर भी मुल्क की ख़िदमत की। वो पाकिस्तान नेशनल काउंसिल ऑफ द आर्ट्स की महानिदेशक के ओहदे से रिटायर्ड हुईं। उन्होंने एक मुस्तनद (प्रतिष्ठित) अदबी रिसाले (पत्रिका) ‘माहे नौ’ का बरसों तक संपादन किया। किश्वर नाहिद ने सिमोन डी बोवुआर की मशहूर किताब ‘द सेकेंड सेक्स’ का उर्दू तर्जुमा भी किया, जिससे उर्दू दां तबक़े में नारीवादी फ़िक्र को एक नई रफ़्तार मिली।
‘अब सिर्फ़ लिबास रह गया है
किश्वर नाहिद
वो ले गया कल बदन चुरा कर’
औरतों की आज़ादी के लिए उनका जज़्बा महज़ अल्फ़ाज़ तक सीमित नहीं था। उन्होंने ‘हव्वा’ नाम की एक तन्ज़ीम (संगठन) की बुनियाद रखी, जिसका मक़सद उन औरतों को माआशी (आर्थिक) तौर पर आज़ाद करना था, जिनके पास अपनी कोई मुस्तक़िल आमदनी नहीं थी। इस तन्ज़ीम के ज़रिए औरतें कुटीर उद्योगों और हस्तशिल्प को बेचकर ख़ुद-मुख्तार बनने लगीं।
पुरस्कार और सम्मान
किश्वर नाहिद को उनकी ज़बरदस्त अदबी खिदमात के लिए दुनिया भर में सराहा गया है।
कोलंबिया यूनिवर्सिटी मंडेला पुरस्कार (1997)
सितारा-ए-इम्तियाज़ (2000) – पाकिस्तान हुकूमत की तरफ़ से दिया जाने वाला सबसे बड़ा एज़ाज़।
बच्चों के साहित्य के लिए प्रतिष्ठित यूनेस्को पुरस्कार-ये उनके बच्चों के लिए लिखे गए आठ क़ीमती (अमूल्य) किताबों के लिए दिया गया।
उनकी नज़्में सिर्फ़ उर्दू तक सीमित नहीं रहीं। उनका तर्जुमा (अनुवाद) अंग्रेजी, स्पेनिश, पुर्तगाली और फ़्रेंच जैसी कई ज़बानों में हुआ है, जिसने उन्हें आलमी (अंतरराष्ट्रीय) शायरा का मक़ाम बख़्शा है।
किश्वर नाहिद की ज़ीस्त और शायरी, दोनों ही बग़ावत, हिम्मत और मोहब्बत की एक शानदार मिसाल हैं। उन्होंने हमें सिखाया कि अल्फ़ाज़ महज़ रंग और ख़ुशबू ही नहीं देते, बल्कि तलवार भी बन सकते हैं-वो तलवार जो ज़ुल्म के अंधेरे को काटकर रोशनी पैदा करती है।
किश्वर नाहिद आज भी पाकिस्तान में रहने वाली उर्दू-भाषी नारीवादी कवयित्री के तौर पर एक रोशन मीनार की तरह क़ायम हैं, जिनकी नज़्में हर उस शख़्स को हौसला देती हैं जो इंसाफ़ और बराबरी के लिए लड़ रहा है। उनका कलाम एक सदा-ए-हक़ है, जो सदियों तक गूंजता रहेगा। यक़ीनन, ‘हम गुनहगार औरतें’ की ये बुलंद आवाज़, तारीख़ का एक अहम हिस्सा है।
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