उर्दू शायरी की महफ़िल में जब रूमानियत की बात होती है, तो कुछ नाम अपने आप ज़ेहन में उतर आते हैं अख़्तर शीरानी, जोश मलीहाबादी, हफ़ीज़ जालंधरी, और इन्हीं में एक चमकता हुआ रोशन नाम है अब्दुल हमीद अदम का। अदम का असल नाम बहुतों को शायद याद न हो, मगर उनकी शायरी के अशआर हर दिल पर नक़्श हैं। वो शायर जिनकी नज़्मों और ग़ज़लों में इश्क़, हुस्न, मोहब्बत और जज़्बात की वो नर्मी मिलती है जो उर्दू अदब को एक ख़ास लुत्फ़ बख़्शती है।
अदम की शायरी सिर्फ़ रूमानी नहीं, बल्कि इंसानी तजरबात का आईना है। उन्होंने इश्क़ को सिर्फ़ इश्क़ के तौर पर नहीं, बल्कि एक अहसास, एक तर्बियत, और एक दर्द की तरह देखा। जो इंसान को ज़िंदा रखता है।
रूमानी फिज़ा में अदम का सफ़र
अदम का दौर वो था जब उर्दू शायरी में रूमानियत का बोलबाला था। अख़्तर शीरानी की नाज़ुक तस्वीरें, हफ़ीज़ जालंधरी की दिलकश बयानी, और जोश मलीहाबादी की जुनूनी अल्फ़ाज़- इन सबके दरमियान अदम ने अपनी पहचान बनाई। उन्होंने उसी रूमानी फ़िज़ा को अपनाया, मगर उसमें अपनी ताज़गी, अपना अंदाज़ और अपनी संवेदना की झलक शामिल कर दी।
उनकी शायरी में हिज्र और विसाल के साथ-साथ ज़माने की तासीर भी महसूस होती है। वो इश्क़ को महज़ तसव्वुर या ख़्वाब नहीं समझते थे, बल्कि उसे हक़ीक़त का एक रंग मानते थे, जो हर दिल में किसी न किसी शक्ल में मौजूद है।
अदम की ज़िंदगी का सफ़र
अदम का जन्म 10 अप्रैल 1910 को गुजरांवाला के एक गांव, तलवंडी मूसा में हुआ। वहीं से उनकी ज़िंदगी की कहानी शुरू होती है। उन्होंने इस्लामिया हाईस्कूल भाटी गेट, लाहौर से मैट्रिक की तालीम हासिल की। इसके बाद प्राइवेट तौर पर एफ.ए. किया और फिर मल्टी एकाउंट्स में नौकरी पर लग गए।
साल 1930 में वो इराक़ चले गए, जहां उन्होंने शादी की और कुछ अरसा वहीं गुज़ारा। बाद में, 1961 में हिंदुस्तान लौट आए। उन्होंने एस.ए.एस.का इम्तेहान पास किया और मिलिट्री एकाउंट्स में बहाल हुए।10 मार्च 1981 को दुनिया से रुख़सत हुए। उनकी ज़िंदगी सादा थी, मगर उनकी शायरी- बेहद रंगीन, दिलनशीं और असरदार।
शायरी की रवानी और एहसासात की गहराई
अदम उन शायरों में से थे जो ज़्यादा और लगातार लिखते रहे। उनकी शायरी में एहसास की रवानी है, जो सीधे दिल में उतर जाती है। उनके कलाम में इश्क़ की नर्मी, जुदाई की तासीर, और इंसानियत की पुकार, सब कुछ मौजूद है। उनके काव्य संग्रहों की लम्बी फे़हरिस्त बताती है कि वो एक जुनूनी शायर थे, जिनके लिए कलम थमना मुमकिन न था।
उनके कुछ मशहूर मजमूए हैं — ‘ख़राबात’, ‘चारा-ए-दर्द’, ‘ज़ुल्फ़-ए-परेशां’, ‘सर-ओ-सुमन’, ‘गर्दिश-ए-जाम’, ‘शहर-ए-ख़ूबां’, ‘गुलनार’, ‘अक्स-ए-जाम’, ‘रमे आहू’, ‘बत-ए-मय’, ‘निगारख़ाना’, ‘साज़-ए-सफ़’, ‘रंग-ओ-आहंग’।
हर मजमूआ एक नया एहसास, एक नया तज़ुर्बा और एक नई दास्तान कहता है।
इश्क़, हुस्न और हिज्र की तर्जुमानी
अदम की शायरी में इश्क़ की वो मासूमियत है जो आज की तेज़ रफ़्तार दुनिया में कहीं खो सी गई है। उनकी ग़ज़लों में इश्क़ सिर्फ़ माशूक़ तक महदूद नहीं, बल्कि एक रूहानी सफ़र बनकर उभरता है। वो कहते हैं —
“शायद मुझे निकाल के पछता रहे हों आप,
अदम
महफ़िल में इस ख़याल से फिर आ गया हूं मैं।”
ये शेर अदम की शायरी का एक बेहतरीन नमूना है मोहब्बत में अपनापन भी है, दर्द भी और उम्मीद भी। इसी तरह एक और जगह वो कहते हैं —
“सिर्फ़ इक क़दम उठा था ग़लत राह-ए-शौक़ में,
अदम
मंज़िल तमाम उम्र मुझे ढूंढती रही।”
क्या ख़ूबसूरत तर्जुमानी है इस शेर की! इश्क़ में भटकना, गुम होना, मगर उसी राह में अपनी मंज़िल तलाश करना — यही तो अदम की रूमानियत है। और फिर ये लफ़्ज़ जो उनके फ़लसफ़े की गहराई बयां करते हैं —
“दिल अभी पूरी तरह टूटा नहीं,
अदम
दोस्तों की मेहरबानी चाहिए।”
यहां अदम का लहजा ना शिकायती है, ना उदास- बल्कि उसमें एक दिलकश नर्म मुस्कुराहट है। वो जानते हैं कि टूटना भी ज़िंदगी का हिस्सा है, और दोस्ती भी एक मरहम की तरह है।
समाज और इंसान की पहचान
रूमानी होने के बावजूद, अदम की शायरी में समाज का दर्द और इंसान की हक़ीक़त भी झलकती है। वो कहते हैं —
“जिन से इंसान को पहुंचती है हमेशा तकलीफ़,
अदम
उनका दावा है कि वो अस्ल ख़ुदा वाले हैं।”
यह शेर आज भी उतना ही सच्चा लगता है जितना उनके दौर में रहा होगा। अदम ने न सिर्फ़ इश्क़ को, बल्कि इंसान की रूह और समाज की सूरत को भी अपने कलाम का हिस्सा बनाया। अदम का अंदाज़ अक्सर साक़ी और मय की तशबीह में दिखाई देता है। मगर उनका मतलब कभी लफ़्ज़ी नहीं होता, वो इश्क़ और रूहानियत की बात करते हैं।
“साक़ी, मुझे शराब की तोहमत नहीं पसंद,
अदम
मुझ को तिरी निगाह का इल्ज़ाम चाहिए।”
यहां शराब इश्क़ का रूपक है और निगाह उस रूहानी तासीर की अलामत जो माशूक़ की आंखों से दिल में उतरती है।
अदम का असर और उनकी विरासत
अदम ने उर्दू शायरी को रूमानियत की उस ऊंचाई पर पहुंचाया जहां लफ़्ज़ सिर्फ़ अल्फ़ाज़ नहीं रहते, बल्कि एहसास बन जाते हैं। उनकी शायरी ने न सिर्फ़ मोहब्बत को, बल्कि मोहब्बत की ज़बान को भी एक नई पहचान दी। उनकी तहरीरें आज भी महबूब की याद, जुदाई की टीस, और इश्क़ की गर्मी से महकती हैं। वो कहते थे —
“मोहब्बत अगर जुर्म है, तो मैं बार-बार इस जुर्म का इकरार करूंगा।”
अदम का नाम शायद आज के दौर में उतना नहीं लिया जाता जितना होना चाहिए, मगर उनके अशआर अब भी उर्दू अदब के हर चाहनेवाले के दिल में ज़िंदा हैं। अदम एक ऐसे शायर थे जिन्होंने इश्क़ को ज़िंदगी की ज़बान बनाया, और ज़िंदगी को इश्क़ की तर्जुमानी।
उनकी शायरी में दिल की सच्चाई, रूह की गहराई, और अहसास की गर्मी मिलती है। वो सिर्फ़ एक रूमानी शायर नहीं थे। बल्कि वो एक मुहब्बत का शायर, इंसानियत का शायर, और एहसास का शायर थे।
और यही वजह है कि जब भी कोई शख़्स मोहब्बत में टूटकर मुस्कुराता है। कहीं न कहीं, अदम का कोई शेर उसके साथ होता है।
“शायद मुझे निकाल के पछता रहे हों आप,
अदम
महफ़िल में इस ख़याल से फिर आ गया हूं मैं।”
ये सिर्फ़ एक शेर नहीं, बल्कि अदम का पूरा फ़लसफ़ा है । इश्क़ में लौट आने का, उम्मीद में जीने का, और शायरी में हमेशा ज़िंदा रहने का।
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