उर्दू शायरी की दुनिया में कुछ नाम ऐसे हैं जो अपनी शख़्सियत, अपने कलाम और अपने असर की वजह से हमेशा याद रखे जाते हैं। मीर और ग़ालिब के बाद अगर किसी शायर को ग़ज़ल की “त्रिमूर्ति” में शामिल किया गया तो वो थे शाद अज़ीमाबादी। आलोचक कलीम उद्दीन अहमद ने उन्हें उर्दू शायरी का तीसरा बड़ा नाम कहा। उनकी शायरी में जहां क्लासिकी रिवायत की नफ़ासत है, वहीं एक ऐसी शख़्सी चेतना भी मौजूद है जो उन्हें भीड़ से अलग करती है।
शाद की अहमियत – तारीख़ी और अदबी
शाद की अहमियत दो पहलुओं में समझी जाती है – तारीख़ी और अदबी। तारीख़ी इस मायने में कि जब उर्दू ग़ज़ल पर तंक़ीद हो रही थी, उसे सतही और बेमानी कहा जा रहा था, उस दौर में शाद ने ग़ज़ल के आलम को बुलंद किए रखा। उन्होंने साबित किया कि ग़ज़ल सिर्फ़ इश्क़ और माशूक़ की दास्तान नहीं, बल्कि इंसानी तजुर्बों और ज़िंदगी की गहराईयों का आईना भी बन सकती है।
अदबी मायने में उनका कारनामा ये था कि उन्होंने ग़ज़ल के क्लासिकी रंगों को अपनाकर उन्हें सच्चे और ख़ालिस अदब में ढाल दिया। यही वजह है कि मशहूर आलोचक मजनूं गोरखपुरी ने उन्हें “नम आलूदगियों का शायर” कहा और अल्लामा इक़बाल भी उनकी शायरी के क़ायल थे।
पैदाइश और ख़ानदानी माहौल
शाद अज़ीमाबादी का असल नाम सैयद अली मुहम्मद था। वो 1846 में अज़ीमाबाद (आज का पटना) के एक रईस घराने में पैदा हुए। उनके वालिद सैयद तफ़ज़्ज़ुल हुसैन इलाके के जाने-माने अमीरों में शुमार होते थे। घर का माहौल मज़हबी भी था और अदबी भी।
शाद बचपन से ही बेहद ज़हीन थे। सिर्फ़ दस साल की उम्र में उन्होंने फ़ारसी ज़बान और अदब पर पूरा क़ाबू हासिल कर लिया था और शेर कहना शुरू कर दिया था। लेकिन यहां एक दिलचस्प किस्सा है – उनके माता-पिता शायरी के सख़्त खिलाफ़ थे। वो चाहते थे कि शाद इराक़ जाकर दीन और मज़हब की तालीम हासिल करें। मगर शाद का दिल तो शायरी में रम चुका था। वो छुप-छुपाकर शेर कहते और आख़िरकार उन्होंने मशहूर शायर सैयद अल्ताफ़ हुसैन फ़र्याद की शागिर्दी इख़्तियार कर ली।
बीमारियों से जूझती ज़िंदगी
शाद को किताबों और अध्ययन से इतनी मोहब्बत थी कि अक्सर रात-रात जागते रहते। नतीजा ये हुआ कि कम उम्र में ही वो पेट और दिल की बीमारियों का शिकार हो गए। डॉक्टरों ने उन्हें चेतावनी दी लेकिन उन्होंने अपना रवैया नहीं बदला। यही वजह थी कि वो ज़िंदगी भर बीमारियों से जूझते रहे।
अदबी सफ़र की शुरुआत
शाद के अदबी सफ़र की असल शुरुआत तब हुई जब उर्दू की मशहूर अदबी पत्रिका “मख़ज़न” के संपादक सर अब्दुल क़ादिर सरवरी पटना आए और उनसे मुलाक़ात हुई। शाद का कलाम सुनकर वो इतने मुतास्सिर हुए कि उन्होंने उनकी शायरी “मख़ज़न” में छापनी शुरू कर दी। इसके बाद शाद का नाम उर्दू अदब की दुनिया में रोशन होने लगा।
शाद अज़ीमाबादी ने सिर्फ़ ग़ज़ल ही नहीं, बल्कि मरसिए, रुबाइयां, मुसद्दस और क़सीदे भी कहे। उनकी शायरी में “हकीमाना मिज़ाज” है – यानी ज़िंदगी के तजुर्बात, फ़लसफ़ा और इंसान की गहराईयां। उनके अशआर में एक ख़ास तरह की गर्मी, सोज़ और कसक है। उनका अंदाज़ सजीला और बेहद नफ़ीस है। वो न तो रिवायत को तोड़ने के हक़ में थे और न ही सिर्फ़ पुराने ढर्रे को दोहराने वाले। बल्कि उन्होंने परंपरा में इज़ाफ़ा (expansion) किया और उसे एक नई जान बख़्शी।
उनके अशआर की मिठास, लुत्फ़ और असर आज भी दिलों को छूता है:
तमन्नाओं में उलझाया गया हूं
शाद अज़ीमाबादी
खिलौने दे के बहलाया गया हूं
कौन सी बात नई ऐ दिल-ए-नाकाम हुई
शाम से सुब्ह हुई, सुब्ह से फिर शाम हुई
देखा किए वो मस्त निगाहों से बार बार
जब तक शराब आई कई दौर हो गए
गद्य और तवारीख़ में दिलचस्पी
शाद सिर्फ़ शायर ही नहीं, एक क़ाबिल गद्यकार और इतिहासकार भी थे। उन्होंने कई उपन्यास लिखे। उनका मशहूर उपन्यास “पीर अली” पहली जंगे-आज़ादी (1857) पर लिखा गया और इसे उर्दू का पहला ऐतिहासिक उपन्यास माना जाता है।
1876 में जब प्रिंस ऑफ़ वेल्ज़ हिंदुस्तान आए, तो उन्होंने शाद से बिहार का इतिहास लिखने की फ़रमाइश की। शाद ने तीन हिस्सों में बिहार का इतिहास लिखा जिनमें से दो प्रकाशित हुए। उनकी किताब “नवाए वतन” ने तो पटना में तहलका मचा दिया। इसमें उन्होंने अज़ीमाबाद और बिहार के शरीफ़ घरानों की ज़बान और आदतों की ख़राबियों को बयान किया था। इस पर उनके खिलाफ़ अख़बारात में तंक़ीद हुई, उनके घर के बाहर जुलूस निकले और नौहे पढ़े गए।
सियासी और सामाजिक शिरकत
शाद सिर्फ़ अदबी नहीं, बल्कि सामाजिक और सियासी शख़्सियत भी थे। वो पटना म्युनिसिपल्टी के सदस्य और बाद में म्युनिस्पल कमिश्नर बने। 1889 में उन्हें ऑनरेरी मजिस्ट्रेट भी नामज़द किया गया।
शाद ने ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा ऐश-ओ-आराम से गुज़ारा। सफ़र में उनके साथ 8–10 नौकर चलते। मगर ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में हालात बदले और उन्हें अंग्रेज़ हुकूमत का वज़ीफ़ा-ख़्वार होना पड़ा। उन्हें सरकार से किताबों की अशाअत, घर की मरम्मत और खर्च के लिए रुपये मिलते थे।
शाद को पत्रकारिता में भी गहरी दिलचस्पी थी। 1874 में उन्होंने “नसीम-ए-सहर” नाम से एक साप्ताहिक अख़बार शुरू किया, जो सात साल तक निकला।
शाद ने तक़रीबन एक लाख शेर कहे और कई दर्जन गद्य रचनाएं लिखीं। अफ़सोस कि उनका बहुत सा कलाम खराब हो गया और प्रकाशित नहीं हो पाया। उनकी आत्मकथा “शाद की कहानी शाद की ज़बानी” आज भी उनकी ज़िंदगी की असल झलक पेश करती है।
मैं ‘शाद’ तन्हा इक तरफ़ दुनिया की दुनिया इक तरफ़
शाद अज़ीमाबादी
सारा समुंदर इक तरफ़ आंसू का क़तरा इक तरफ़
आख़िरी सफ़र
लंबी बीमारियों, तंक़ीदों और मुश्किल हालात के बावजूद शाद ने पूरी उम्र शेर-ओ-अदब की ख़िदमत में गुज़ार दी। 8 जनवरी 1927 को उनका इंतिक़ाल हो गया। मगर उनका कलाम आज भी ज़िंदा है और उनकी शायरी की गर्मी, उनकी फ़िक्र की गहराई और उनकी अदबी शख़्सियत हमेशा याद रखी जाएगी।
शाद अज़ीमाबादी वो शायर हैं जिन्होंने उर्दू ग़ज़ल को एक नई रूह, एक नई पहचान दी। उन्होंने न सिर्फ़ मीर और ग़ालिब की रवायत को आगे बढ़ाया बल्कि उसमें अपनी शख़्सी मोहर भी लगाई। उनकी शायरी इंसानी तजुर्बे, दर्द, हकीक़त और हुस्न का अक्स है।
आज जब हम उर्दू अदब की तारीख़ पलटते हैं तो शाद का नाम एक ऐसे सितारे की तरह चमकता है जिसने तमाम मुश्किलात, बीमारियों और विरोधों के बावजूद ग़ज़ल की शमा को बुझने नहीं दिया।
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