भारत के इतिहास में योद्धाओं की योग्यता का प्रमाण (Proof of Warriors’ Ability) अक्सर उनकी धनुर्विद्या से मापी गयी है। 1192 ईसवी में मोहम्मद गोरी को मारने के लिए पृथ्वीराज चौहान का शब्दभेदी बाण चलाना हो या द्वापर युग में अर्जुन का मछली की आंख पर निशाना साधना हो। अपने शत्रुओं का सामना करने के लिए धनुर्विद्या (Archery) का अपना एक अलग महत्व रहा है। लेकिन समय का पहिया घूमा और उन्नत हथियारों ने अपनी पकड़ मज़बूत कर ली।
उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के जवाहर नगर गांव में धनुर्धरों की फौज (Army of Archers) तैयार हो रही है। इस धनुर्धरों की फौज को तैयार कर रहे है एक प्राइवेट स्कूल के टीचर मनोज चौहान।
मनोज चौहान फ्री में दे रहे है धनुर्विद्या की शिक्षा
मनोज चौहान कहते है कि करीब आठ से नौ सालों से बच्चों को यहां एडमिशन दिया जाता है और बदले में फीस नहीं ली जाती, प्रैक्टिस के लिए यह ग्राउंड किराए पर लिया हुआ है और बच्चों का सारा खर्चा हम अपनी तरफ से करते है। वह आगे कहते है कि धनुर्विद्या (Archery) हमारी शुरू से ही संस्कृति रही है, जो रामायण महाभारत काल से चलती आ रही है और हम चाहते है कि यह आगे भी यह जिंदा रहे। हमारे गांव के बच्चे नेशनल लेवल पर भाग ले और जनपद का नाम रौशन करे।

किसी निश्चित लक्ष्य पर धनुष की सहायता से बाण चलाने की कला को धनुर्विद्या कहते है। विधिवत युद्ध का यह सबसे प्राचीन तरीका माना जाता है। धनुर्विद्या का जन्मस्थान अनुमान का विषय है, लेकिन ऐतिहासिक सूत्रों से सिद्ध होता है कि इसका प्रयोग प्राचीन काल में होता था। संभवत भारत से ही यह विधा ईरान होते हुए यूनान और अरब देशों में पहुंची थी।
मनोज लगभग 2015 ने इस गेम के बारे में पहली बार सुना और इसके बारे में जाना। उन्हें पता चला कि यह गेम आज भी चल रहा है। तो उन्होंने सोचा कि इसे अपनाया जाए। उनका मानना था कि अपने गांव के उन बच्चों सीखाया जाए जिन्हे मौका नहीं मिल पाता। ख़ासकर लड़कियों को। आजकल माहौल ऐसा हो गया है कि लड़कियां बाहर नहीं जा पाती है। मनोज कुमार के सिखाए बच्चे स्पोर्टस् कोटा के माध्यम से किसी सम्मानित पद पर आसीन है या फिर खेल प्रतियोगिताओं में अपने शहर, जिले या प्रदेश का प्रतिनिधित्व कर उसका नाम रौशन कर रहे है। गुरूओं से मिली शिक्षा से बच्चे अपनी गरीबी को मात दे जिंदगी की जंग जीत रहे है।
हुनहार बच्चों में से एक है काजल वह कहती है कि “तीरंदाजी में उन्होंने मेडल जीता और स्पोर्टस कोटे से उनका चयन यूपी पुलिस में कॉंस्टेबल के पद पर हुआ, 2015 दिसंबर के आखिर में मैने खेलना शुरू किया अब मुझे करीब छह से सात साल हो चुके है।

यहां स्टेडियम में कुछ गेम शुरू हुए थे हमारे सर ने जाना शुरू किया था, फिर हमे स्कूल असेंबली में बताया गया कि जो बच्चे इच्छुक है वह खेलने के लिए जाए। इसके बाद मैंने अपने घर पर फिर सर के साथ जाना शुरू किया धीरे धीरे मेरी रूचि बढ़ने लगी। शुरूआत में मेरे साथा चार लड़कियों ने प्राक्टिस करनी शुरू की थी उनमें से स्वाती मौर्या इंडो तिब्बतन बॉर्डर पुलिस (ITBP), अंशुल चौहान बॉर्डर स्क्योरिटी फोर्स (BSF) में है और गोल्ड मेडलिस्ट है।”
मनोज कुमार की पहल गांव वालों के लिए वरदान साबित हुई है। ख़ासकर उन बच्चों के लिए जो खेल का शौक तो रखते है लेकिन आर्थिक तंगी ने उनके कदम पीछे खींच लिए है। मनोज चौहान से आज भी करीब 20 बच्चे धनुर्धरों की विध्या हासिल कर रहे है और अपने आर्थिक हालात से लड़ने के लिए तैयार हो रहे है।
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