07-Sep-2025
HomePOETइरफ़ान सिद्दीक़ी: ख़्वाबों, एहसासों और लफ़्ज़ों का शायर

इरफ़ान सिद्दीक़ी: ख़्वाबों, एहसासों और लफ़्ज़ों का शायर

इरफ़ान सिद्दीक़ी उर्दू शायरी की दुनिया का एक अहम नाम हैं। उन्होंने कालिदास के नाटकों और अरबी अदब के अनुवाद भी किए। अपनी नफ़ीस शायरी और अदबी खिदमत की वजह से उन्हें कई सम्मान मिले।

उठो ये मंज़र-ए-शब-ताब देखने के लिए 
कि नींद शर्त नहीं ख़्वाब देखने के लिए

इरफ़ान सिद्दीक़ी

यूं तो हर शायर अपने अल्फ़ाज़ के ज़रिए एक नई दुनिया रचता है, लेकिन कुछ शायर ऐसे होते हैं जिनकी दुनिया में क़दम रखते ही, एहसास की एक नई मंज़िल का दरवाज़ा खुल जाता है। इरफ़ान सिद्दीक़ी भी उन्हीं शायरों में से एक थे। उनका जन्म 8 जनवरी 1939 को उत्तर प्रदेश के बदायूं शहर में हुआ। यह वो सरज़मीं है जिसने हमेशा से ही अदीबों और शायरों को जन्म दिया है। इरफ़ान सिद्दीक़ी ने बदायूं और बरेली में अपनी ता’लीम मुकम्मल की और समाजशास्त्र में पोस्ट ग्रैजुएशन की डिग्री हासिल की। इस इल्म ने उनकी सोच को एक नई गहराई बख़्शी, जो उनकी शायरी में साफ़ तौर पर नज़र आती है। उनकी शायरी सिर्फ़ दिल की बातें नहीं करती, बल्कि समाज और ज़माने के हालात को भी एक नए नज़रीए से पेश करती है।

सरकारी नौकरी और शायरी का सफ़र

1962 में जब वो सेंट्रल इन्फ़ार्मेशन सर्विस के लिए चुने गए और पी.आई.बी. (प्रेस इन्फ़ार्मेशन ब्यूरो) में उन्हें अपॉइंटमेंट मिली, तो बहुतों को लगा कि अब उनका ध्यान शायरी से हट जाएगा। लेकिन यह उनकी शख़्सियत का एक दिलचस्प पहलू था कि सरकारी ज़िम्मेदारियों के बीच भी उन्होंने अपने अंदर के शायर को मरने नहीं दिया। उन्होंने दफ़्तर की दुनिया और शायरी की दुनिया के बीच एक ख़ूबसूरत पुल बनाया। 1997 में डिप्टी प्रिंसिपल इन्फ़ार्मेशन ऑफ़ीसर के पद से रिटायर होने तक उन्होंने अपने दोनों फ़र्ज़ बखूबी निभाए।

उनकी निजी ज़िंदगी भी उनकी शायरी की तरह सादगी और मोहब्बत से भरी थी। 1964 में उन्होंने श्रीमती सय्यदा हबीब से शादी की, जो उनके सफ़र की साथी बनीं। 15 अप्रैल 2004 को लखनऊ में उनका इंतिक़ाल हुआ, लेकिन उनकी शायरी आज भी ज़िंदा है, और हमेशा रहेगी।

क़लम की परवाज़: ‘कैन्वस’ से ‘शह्र-ए-मलाल’ तक

इरफ़ान सिद्दीक़ी की साहित्यिक यात्रा का आग़ाज़ 1978 में उनके पहले कविता संग्रह ‘कैन्वस’ से हुआ। यह सिर्फ़ एक किताब नहीं, बल्कि एक शाइराना इबारत का पहला चैपटर था। इसके बाद उनकी क़लम ने रुकने का नाम नहीं लिया। उनके संग्रह ‘शब-दर्मियां’ (1984), ‘सात समावात’ (1992), ‘इ’श्क़-नामा’ (1997), और ‘हवा-ए-दश्त-ए-मारिया’ (1998) ने उन्हें उर्दू शायरी की दुनिया में एक ख़ास मुक़ाम दिलाया। हर संग्रह एक नई दास्तान सुनाता था, कहीं मोहब्बत की गहराई थी तो कहीं ज़िंदगी की पेचीदगियां।

उनके दो कुल्लियात यानी संग्रहों, ‘दरिया’ (1999) जो इस्लामाबाद से प्रकाशित हुआ, और ‘शह्र-ए-मलाल’ (2016) जो उनके इंतिक़ाल के बाद देहली से छपा। उनकी शायरी को एक साथ समेटा। ये कुल्लियात उनके साहित्यिक सफ़र का निचोड़ हैं, जो यह बताते हैं कि उन्होंने शायरी को एक दरिया की तरह बहने दिया और कभी उसे किसी दायरे में क़ैद नहीं किया।

उनकी शायरी की सबसे बड़ी ख़ूबी यह थी कि वह आम इंसान के एहसासों को छूती थी। बदन में जैसे लहू ताज़ियाना हो गया है उसे गले से लगाए ज़माना हो गया है इस शेर में दर्द, जुदाई और बेबसी का जो एहसास है, वो हर उस शख़्स को महसूस होता है जिसने कभी किसी को खोया हो।

सिर्फ़ शायर नहीं, एक अज़ीम अनुवादक भी

इरफ़ान सिद्दीक़ी सिर्फ़ एक शायर नहीं थे, बल्कि एक मुम्ताज़ अदीब और अनुवादक भी थे। उनकी किताबों में ‘अ’वामी तर्सील’ (1977) और ‘राब्ता-ए-आ’म्मा’ (1984) शामिल हैं, जो संचार के विषय पर लिखी गई हैं और उनकी गहरी समझ को दर्शाती हैं।

लेकिन उनका सबसे बड़ा साहित्यिक योगदान अनुवाद के मैदान में था। उन्होंने कालिदास के मशहूर नाटकों ‘ऋतु संघारम’ का उर्दू में ‘रुत-सिंघार’ के नाम से और ‘मालविका आग्नि मित्रम’ का उर्दू अनुवाद किया। यह एक मुश्किल काम था क्योंकि उन्होंने दो अलग-अलग ज़बानों और संस्कृतियों को आपस में जोड़ा। इस तरह उन्होंने संस्कृत के महान साहित्य को उर्दू के क़ारिईन (पाठकों) के लिए सुलभ बनाया। इसके अलावा, उन्होंने एक अरबी उपन्यास ‘रोटी की ख़ातिर’ का भी उर्दू में तर्जुमा किया।

इरफ़ान सिद्दीक़ी को उनकी ख़िदमात के लिए कई सम्मान मिले, जिनमें उर्दू अकादमी उत्तर प्रदेश और ग़ालिब इंस्टीट्यूट, देहली के एज़ाज़ शामिल हैं। लेकिन उनका सबसे बड़ा सम्मान उनके शे’र हैं जो आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं।

तुम परिंदों से ज़ियादा तो नहीं हो आज़ाद शाम होने को है अब घर की तरफ़ लौट चलो

यह शे’र आज़ादी की चाह और ज़िम्मेदारियों के एहसास को कितनी ख़ूबसूरती से बयां करता है। यह बताता है कि इंसान कितना भी आज़ाद होने का दावा करे, उसे अपनी असलियत और ज़िम्मेदारियों की तरफ़ लौटना ही पड़ता है।

बदन के दोनों किनारों से जल रहा हूं मैं कि छू रहा हूं तुझे और पिघल रहा हूं मैं

मोहब्बत की शिद्दत और समर्पण को इससे बेहतर क्या बयां किया जा सकता है? यह शे’र इश्क़ की उस आग को दिखाता है जो दिल और रूह दोनों को एक साथ जलाती है।

इरफ़ान सिद्दीक़ी ने अपनी शायरी में ज़िंदगी की हक़ीक़तों को भी नहीं छोड़ा। हम तो रात का मतलब समझें ख़्वाब, सितारे, चांद, चराग़ आगे का अहवाल वो जाने जिस ने रात गुज़ारी हो इस शे’र में ज़िंदगी के तजुर्बों और मुश्किलों का ज़िक्र है। यह बताता है कि सिर्फ़ बातों से नहीं, बल्कि हक़ीक़ी तजुर्बों से ही किसी चीज़ को समझा जा सकता है।

इरफ़ान सिद्दीक़ी एक ऐसे शायर थे जिन्होंने अपने एहसासों को लफ्ज़ का लिबास पहनाकर हमारे सामने रख दिया। उनकी शायरी सिर्फ़ अल्फ़ाज़ का मज़्मूआ (समूह) नहीं, बल्कि एक आईना है जिसमें हम अपने एहसासात और ख़्वाबों की झलक देख सकते हैं। उनका काम आज भी हमें प्रेरित करता है और हमें बताता है कि लफ्ज़ों में कितनी ताक़त होती है। उनकी विरासत ज़िंदा है और हमेशा ज़िंदा रहेगी।

ये भी पढ़ें: ख़लील-उर-रहमान आज़मी: जब एक हिंदुस्तानी शायर बना ब्रिटिश स्कॉलर का टीचर 

आप हमें FacebookInstagramTwitter पर फ़ॉलो कर सकते हैं और हमारा YouTube चैनल भी सबस्क्राइब कर सकते हैं

RELATED ARTICLES
ALSO READ

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular