29-Oct-2025
HomePOETसलीम कौसर: वो शायर जिसने कहा, 'मैं नसीब हूं किसी और का,...

सलीम कौसर: वो शायर जिसने कहा, ‘मैं नसीब हूं किसी और का, मुझे मांगता कोई और है।’

सलीम कौसर ने शायरी की शुरुआत कबीरवाला की महफ़िलों से की, जहां मशहूर शायरों से मिलकर अपने हुनर को निखारा। जल्द ही वे मुशायरों की पहचान बन गए, और उनके शेर लोगों के दिलों में उतर गए।

उर्दू अदब की दुनिया में कुछ नाम ऐसे हैं जो अपनी नज़्मों और ग़ज़लों के ज़रिए दिलों में हमेशा के लिए जगह बना लेते हैं। उन ही नामों में से एक हैं सलीम कौसर- ऐसे शायर, जिन्होंने अपने एहसास, अपने लफ़्ज़ और अपनी सादगी से मोहब्बत को एक नया रंग दिया। उनकी शायरी में दर्द भी है, उम्मीद भी है, और इंसानी रिश्तों की वो गहराई भी जो सीधे दिल को छू जाती है।

सलीम कौसर का असली नाम मोहम्मद सलीम  है। उनकी पैदाइश 24 अक्टूबर 1947 को भारत के ऐतिहासिक शहर पानीपत में हुई। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था। हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया और ख़ानेवाल (पंजाब) में बस गया। यहीं से उनकी तालीम की शुरुआत हुई।

बचपन के दिन सादगी और संघर्ष से भरे थे, लेकिन दिल में शायरी का एक दिया जल चुका था। लफ्ज़ों के साथ उनका रिश्ता बहुत पुराना था। जैसे कोई अपने साए से जुड़ा रहता है। बाद में वे कबीरवाला चले गए, जहां उन्होंने उर्दू अदब की दुनिया में अपने पहले क़दम रखा।

साहित्यिक सफ़र की शुरुआत

कहते हैं कि सलीम कौसर ने कबीरवाला की महफ़िलों से शायरी की शुरुआत की। वहां उन्होंने कई मशहूर शायरों से मुलाक़ात की, उनसे सीखा और अपने अंदर के शायर को तराशा। धीरे-धीरे उन्होंने मुशायरों में पढ़ना शुरू किया और उनकी आवाज़ और शेर लोगों के दिलों में बसने लगे।

1972 में वे कराची आ गये, जहां उन्होंने अख़बारों में काम शुरू किया और बाद में पाकिस्तान टेलीविज़न (PTV) से जुड़ गए। यही से उनकी पहचान एक शायर के साथ-साथ एक गीतकार के रूप में भी बनने लगी। उन्होंने कई टीवी धारावाहिकों के लिए शीर्षक गीत लिखे, जो बेहद मक़बूल हुए।

सलीम कौसर ने उर्दू शायरी के कई शानदार संग्रह दिए। उनकी किताबें महज़ ग़ज़लों का मजमूआ नहीं, बल्कि इश्क़, जुदाई, उम्मीद और ज़िंदगी का आईना हैं। उनके कुछ मशहूर संग्रह हैं —
  1. “ख़ाली हाथों में अर्ज़-ओ-समा” (1980)
  2. “ये चिराग है तो जला रहे” (1987)
  3. “ज़रा मौसम बदलने दो” (1991)
  4. “मुहब्बत एक शजर है” (1994)
  5. “दुनिया मेरी आरज़ू से कम है” (2007)
इन किताबों में उनके अल्फ़ाज़ सिर्फ़ लफ़्ज़ नहीं, बल्कि जज़्बात की तस्वीरें हैं  जैसे कोई अपने दिल की बात काग़ज़ पर उतार दे।
‘मैं ख़याल हूं किसी और का’- अमर ग़ज़ल

अगर सलीम कौसर को एक ग़ज़ल ने अमर कर दिया, तो वो है —‘मैं ख़याल हूं किसी और का, मुझे सोचता कोई और है’

ये ग़ज़ल सिर्फ़ एक शेरों की लड़ी नहीं, बल्कि इंसान की उस बेचैनी का बयान है, जो मोहब्बत में अपनी जगह तलाश करता है। इस ग़ज़ल को कई मशहूर गायकों ने अपनी आवाज़ दी और ये ग़ज़ल आज भी मुशायरों से लेकर महफ़िलों तक सुनी जाती है। उनकी शायरी में एक गहरी तन्हाई है, लेकिन वो तन्हाई दर्द नहीं, बल्कि एहसास की ख़ूबसूरती  बन जाती है। जैसे उन्होंने लिखा- 

‘मैं किसी की दस्ते-तलब में हूं तो किसी की हर्फ़े-दुआ में हूं,
मैं नसीब हूं किसी और का, मुझे मांगता कोई और है।’

इस एक शेर में वो पूरा इश्क़ समा जाता है जो अक्सर अधूरा रह जाता है, मगर फिर भी ज़िंदा रहता है  यादों में, दुआओं में।

सलीम कौसर की शायरी में मोहब्बत, वफ़ा, जुदाई, तन्हाई और इंसानियत की झलक मिलती है। उनके लफ़्ज़ आम आदमी के दिल से निकलते हैं और उसी के दिल में जाकर बस जाते हैं। वो इश्क़ को महज़ दो दिलों का रिश्ता नहीं, बल्कि रूह का तजुर्बा मानते हैं। उनका अंदाज़ सादा है, लेकिन असर गहरा। उनके शेरों में एक सुफ़ियाना लहज़ा भी झलकता है  जैसे दर्द में भी एक सुकून हो, ग़म में भी रौशनी हो।

‘कभी लौट आएं तो पूछना नहीं, देखना उन्हें ग़ौर से,
जिन्हें रास्ते में ख़बर हुई कि ये रास्ता कोई और है।’

इस शेर में वो ज़िंदगी का सारा फ़लसफ़ा समा गया है हालात, रिश्ते, वक़्त, और इंसान का बदलता मिज़ाज। सलीम कौसर ने सिर्फ़ पाकिस्तान में नहीं, बल्कि दुनिया के कई मुल्कों में उर्दू का परचम बुलंद किया। उन्होंने दोहा, अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, डेनमार्क, भारत और मिडिल ईस्ट में कई मुशायरों में हिस्सा लिया।  उनकी शायरी सरहदों से परे दिलों को जोड़ती रही।

उनकी शायरी और योगदान को देखते हुए उन्हें 23 मार्च 2015 को “प्राइड ऑफ परफॉरमेंस अवार्ड” से नवाज़ा गया। ये पाकिस्तान का एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय सम्मान है, जो कला और साहित्य के क्षेत्र में असाधारण योगदान के लिए दिया जाता है।

एक आलोचक ने उनके बारे में लिखा — ‘वो भले ही शब्द के मायनों में अमीर न हों, लेकिन अपने जज़्बात में इतने उदार हैं कि अपनी कला का फल सबमें बांट देते हैं।’

और शायद इसी जज़्बे के चलते वो कहते हैं- 


‘प्यार करना काय लियाय, गीत सुनाना काय लियाय,
इक ख़ज़ाना है मरय पास, लुटाना काय लियाय।’

यानी, अगर प्यार और शायरी ख़ज़ाना हैं, तो उन्हें बांटने में ही असली खुशी है।

 उनकी कुछ यादगार ग़ज़लें

कभी तुम अपनी किस्मत का लिखा तब्दील कर लेते…

कहीं तुम अपनी किस्मत का लिखा तब्दील कर लेते,
तो शायद हम भी अपना रास्ता तब्दील कर लेते।
तुम्हारे साथ चलने पर जो दिल राज़ी नहीं होता,
बहुत पहले हम अपना फ़ैसला तब्दील कर लेते।
जुदाई भी न होती ज़िंदगी भी सहल हो जाती,
जो हम एक-दूसरे से मसअला तब्दील कर लेते।

ये ग़ज़ल ज़िंदगी के फैसलों, अफ़सोसों और न बदलने वाली हक़ीक़तों का बयान है।

पहले-पहल तो ख़्वाबों का दम भरने लगती हैं…

पहले-पहल तो ख़्वाबों का दम भरने लगती हैं,
फिर आँखें पलकों में छुपकर रोने लगती हैं।
तस्वीरों का रोग भी आख़िर कैसा होता है,
तन्हाई में बात करो तो बोलने लगती हैं।
इस ग़ज़ल में तन्हाई, यादें और इंसान की नाज़ुक भावनाओं का रंग है।

सलीम कौसर की विरासत

आज उर्दू शायरी की दुनिया में सलीम कौसर का नाम रोशनी के एक चिराग़ की तरह है, जो आज भी जला हुआ है। उन्होंने अपने दौर में जो अल्फ़ाज़ कहे, वो आज भी उतने ही ताज़ा हैं।

उनकी शायरी ने हमें यह सिखाया कि — ‘इश्क़, जुदाई और इंसानियत- ये सब एक ही किताब के अलग-अलग पन्ने हैं।’ सलीम कौसर सिर्फ़ एक शायर नहीं, बल्कि एहसासों के रचनाकार हैं। उनकी ग़ज़लें आने वाले वक्तों में भी लोगों के दिलों को छूती रहेंगी-क्योंकि जैसे उन्होंने खुद कहा था ‘ये चिराग है तो जला रहे…’

ये भी पढ़ें: शकेब जलाली: जिनकी ज़िन्दगी अधूरी ग़ज़ल थी लेकिन लफ़्ज़ एहसास बनकर उतरे 

आप हमें FacebookInstagramTwitter पर फ़ॉलो कर सकते हैं और हमारा YouTube चैनल भी सबस्क्राइब कर सकते हैं।




















RELATED ARTICLES
ALSO READ

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular