“जहां सारे हवा बनने की कोशिश कर रहे थे,
अब्बास क़मर
वहां भी हम दिया बनने की कोशिश कर रहे थे।”
ये एक ऐसे नौजवान शायर के अल्फ़ाज़ है जिसने शायरी को सिर्फ़ लफ्जों का खेल नहीं, बल्कि अपने जज़्बात और तजुर्बात का इज़हार बनाया। नाम है अब्बास क़मर। 25 अगस्त 1994 को उत्तर प्रदेश के जौनपुर ज़िले के एक छोटे से गांव जैगहां में पैदा हुए अब्बास क़मर ने बचपन से ही लफ़्ज़ों से दोस्ती कर ली थी। गांव की मिट्टी, सादगी और वहां की ख़ामोश रातें उनकी तर्ज़-ए-फ़िक्र का हिस्सा बन गईं। उन्होंने अपनी शुरुआती तालीम गांव में ही हासिल की और फिर तालीम की तलाश में दिल्ली का रुख़ किया।
दिल्ली विश्वविद्यालय से ग्रेजुएट होने के बाद उन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया से इंटरनेशनल रिलेशन्स में मास्टर्स की डिग्री ली। मगर उनके दिल में एक और रिश्ता पल रहा था। शायरी का रिश्ता।
दिल्ली: एक नई ज़मीन और एक नया अहसास
दिल्ली में अब्बास क़मर को वो अदबी और शायरी का माहौल मिला जो किसी भी शायर की तरबियत के लिए ज़रूरी होता है। यहां की ग़ज़ल महफ़िलें, मुशायरे, और उर्दू अदब के दीवाने लोगों से मुलाक़ात ने उनके लफ़्ज़ों को एक नई ज़ुबान दी। वो कहते हैं,
“शायरी मेरे लिए सिर्फ़ बयान नहीं, एहसास का तर्जुमा है।
अब्बास क़मर
जो कुछ मैं कह नहीं सकता, वही शे’र बनकर ज़ुबान पा लेता है।”
2017 से उन्होंने बाक़ायदा मुशायरे में शिरकत शुरू की। शुरू में छोटे मंचों पर, फिर धीरे-धीरे बड़े-बड़े शहरों में। लखनऊ, दिल्ली, हैदराबाद, भोपाल, अलीगढ़ और बनारस की महफ़िलों में उनकी आवाज़ गूंजने लगी।
शायरी का रंग और रूह
अब्बास क़मर की शायरी में दर्द भी है, तसव्वुर भी, और तलाश भी। वो इश्क़ की बातें करते हैं, मगर उनका इश्क़ सिर्फ़ रूमानी नहीं इंसानियत, वक़्त, और खुद से भी एक रिश्ता रखता है। उनके अशआर सादगी में लिपटी गहराई का नमूना हैं। जैसे —
“हमें ज़ोर-ए-तसव्वुर भी गंवाना पड़ गया हम,
अब्बास क़मर
तसव्वुर में ख़ुदा बनने की कोशिश कर रहे थे।”
इस शेर में वो इंसान की उस हद को बयान करते हैं जहां ख्वाब हक़ीक़त में ढलने से पहले ही टूट जाते हैं। एक और शे’र देखिए —
“इन्हें आंखों ने बेदर्दी से बे-घर कर दिया है,
अब्बास क़मर
ये आंसू क़हक़हा बनने की कोशिश कर रहे थे।”
यहां आंसू और क़हक़हे के बीच का तसादुम (conflict) सिर्फ़ जज़्बाती नहीं, बल्कि फ़लसफ़ी है। वो दर्द में भी उम्मीद तलाश करते हैं। उनकी एक मशहूर ग़ज़ल का मतला ही उनकी शख़्सियत का आईना है —
“अश्कों को आरज़ू-ए-रिहाई है रोइए,
अब्बास क़मर
आंखों की अब इसी में भलाई है रोइए।”
यहां रोना महज़ कमज़ोरी नहीं, बल्कि एक राहत, एक रिहाई है। उनके लफ़्ज़ों में आंसू इज़हार का ज़रिया हैं जैसे वो कह रहे हों कि जो महसूस करो, उसे छुपाओ नहीं, बह जाने दो ताकि दिल हल्का हो सके।
अल्फ़ाज़ों की परवरिश और लफ़्ज़ों की तहज़ीब
अब्बास क़मर की शायरी की ख़ास बात ये है कि उसमें क्लासिकल उर्दू की मिठास और आधुनिक दौर की सादगी दोनों मौजूद हैं। वो न तो बहुत मुश्किल लफ़्ज़ों का सहारा लेते हैं और न ही अपनी बात को सतही बनाते हैं। उनकी शायरी में गहराई और आसान बयान का संगम है।
“मेरे कमरे में उदासी है क़यामत की मगर,
अब्बास क़मर
एक तस्वीर पुरानी सी हंसा करती है।”
ये शे’र एक अकेलेपन की तस्वीर पेश करता है जहां बीते लम्हों की यादें आज भी हंसी के बहाने दिल को छू जाती हैं।
मुशायरों में नई पीढ़ी की आवाज़
आज अब्बास क़मर को भारत के कई हिस्सों के मुशायरों में बुलाया जाता है। वो उस नई नस्ल के शायर हैं जो मंच पर आते ही अपनी अदायगी और लहजे से सुनने वालों का दिल जीत लेते हैं। उनकी आवाज़ में नरमी है, लेकिन अल्फ़ाज़ में असर। उनका अंदाज़ पुरानी उर्दू शायरी की रवायत से जुड़ा है, मगर सोच बिल्कुल नई और तरोताज़ा। वो कहते हैं —
“हम हैं असीर-ए-ज़ब्त इजाज़त नहीं हमें,
अब्बास क़मर
रो पा रहे हैं आप बधाई है, रोइए।”
इस शे’र में दर्द का इज़हार इतनी ख़ूबसूरती से किया गया है कि सुनने वाला मुस्कुराते हुए भी भीतर तक भीग जाता है।
वक़्त, तन्हाई और ख़ुद से बातचीत
अब्बास क़मर की शायरी का बड़ा हिस्सा ख़ुद से बातचीत है। वो अपने अंदर झांकते हैं और वही तजुर्बे क़लम से बाहर लाते हैं। उनके लिए तन्हाई कोई डर नहीं, बल्कि सोच का आईना है।
“हालत-ए-हाल से बेगाना बना रक्खा है,
अब्बास क़मर
ख़ुद को माज़ी का निहां-ख़ाना बना रक्खा है।”
यह शे’र बताता है कि वो अपने अतीत और अपने जज़्बात के बीच एक नाज़ुक पुल पर खड़े हैं जहां हर याद एक दस्तक देती है और हर तजुर्बा एक नई शायरी का सबब बन जाता है। अब्बास क़मर की शायरी सिर्फ़ सोशल मीडिया तक सीमित नहीं रही। उनके अशआर इंस्टाग्राम, यूट्यूब, और कई अदबी मंचों पर खूब पढ़े और शेयर किए जाते हैं। वो युवा शायरी का चेहरा बन चुके हैं जिनके लफ़्ज़ों में सादगी भी है और सलीक़ा भी। उनका मक़सद शायरी को आम लोगों तक पहुंचाना है। वो कहते हैं- “मैं चाहता हूं कि मेरी शायरी उस तक पहुंचे जो उर्दू नहीं जानता, मगर एहसास को समझता है।”
अब्बास क़मर — एक शायर, एक अहसास
उनकी शायरी में दर्द है, मगर वो दर्द इंसान को तोड़ता नहीं, संवारता है। वो रोने की बात करते हैं, मगर रोना उनके यहां रिहाई है, कमज़ोरी नहीं।
“अश्कों को आरज़ू-ए-रिहाई है रोइए,
अब्बास क़मर
आंखों की अब इसी में भलाई है रोइए।”
यह मतला जैसे कहता है अपने जज़्बात को महसूस कीजिए, छुपाइए मत। क्योंकि जो रो सकता है, वही ज़िंदा है, वही इंसान है।
अब्बास क़मर की शायरी हमें यह सिखाती है कि तन्हाई, दर्द, और याद। ये सब ज़िंदगी का हिस्सा हैं। इनसे भागने की नहीं, इन्हें अपनाने की ज़रूरत है। उनके लफ़्ज़ों में एक ऐसी सच्चाई है जो हर दौर में मायने रखती है। वो आज के शायर हैं मगर उनके अल्फ़ाज़ में कल की ख़ुशबू और आने वाले वक़्त की उम्मीद दोनों महफ़ूज़ हैं।
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