“तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत
इमाम बख़्श नासिख़
हम जहां में तिरी तस्वीर लिए फिरते हैं”
ऐसे दिल छू और दिमाग़-नवाज़ अशआर के ख़ालिक़, उस्ताद इमाम बख़्श नासिख़, उर्दू ग़ज़ल में एक ऐसा नाम हैं जिनके बिना लखनऊ की शायरी की तामीर अधूरी मानी जाती है। नासिख़ सिर्फ़ एक शायर नहीं, एक युग निर्माता, एक रिवायत-गर्ज़ और एक नए लहजे के संस्थापक शख़्सियत थे। उन्होंने न सिर्फ़ उर्दू ज़बान की बाहरी शक्ल-सूरत बदली बल्कि लखनऊ की अदबी दुनिया को नई पहचान दी।
दिल्ली से लखनऊ तक- एक नए सफ़र की शुरुआत
जब दिल्ली का राजनीतिक और तअम्मुली माहौल बिखर रहा था, उस वक़्त कई बड़े उस्ताद -सौदा, मीर, सोज़ और मुसहफ़ी। नई पनाह की तलाश में लखनऊ का रुख़ कर चुके थे। दिल्ली की अव्यवस्था ने इन शायरों को थका दिया था और लखनऊ ने उन्हें खुले दिल से अपनाया। लेकिन एक सच्चाई यह भी थी कि लखनऊ की अदबी दुनिया तब तक दिल्ली के लहजे और उसकी ज़बान के असर में थी। शायरी वही, बहर वही और रंग भी वही।
ज़िंदगी ज़िंदा-दिली का है नाम
इमाम बख़्श नासिख़
मुर्दा-दिल ख़ाक जिया करते हैं
लखनऊ वालों को पहली बार ऐसा शायर मिला जो उनकी अपनी रूह, अपना मिज़ाज और अपनी तमन्नाओं का आइना था।
नासिख़ बनाम आतिश – दो मुक़बिलों की टक्कर
उस वक़्त लखनऊ में मुसहफ़ी के शागिर्द हैदर अली आतिश दिल्ली स्कूल की आख़िरी मज़बूत निशानी थे। जब नासिख़ ने दिल्ली की परंपरा के बरअक्स एक नई शायरी की शुरुआत की, तो टकराव लाज़िमी था। बस फिर क्या —
लखनऊ दो गुटों में बंट गया: नासिख़ के समर्थक और आतिश के मद्दाह(प्रशंसक)
ये मुक़ाबला सतही नहीं था। इसका एक बेहद पॉजिटिव असर हुआ।
दोनों उस्तादों की शायरी और निखर गई। हालांकि उस दौर की हवा साफ़ तौर पर नासिख़ के पक्ष में बह रही थी। उनके शागिर्दों ने उनके बनाए ढांचे को बुलंद इमारत का रूप दिया और यहीं से शुरू हुआ।
लखनऊ स्कूल ऑफ़ पोएट्री: एक ख़ूबसूरत अदबी तामीर
उर्दू अदब में “लखनऊ स्कूल ऑफ़ पोएट्री” एक ऐसी रिवायत है जिसमें शायरी की दुनिया को एक नया ज़ौक़, नई रविश और नई नफ़ासत बख़्शी। इस स्कूल की पहचान उन ख़ास विशेषताओं से होती है जिनमें लखनऊ की तहज़ीब की चमक, उसकी शोख़ी और उनकी अदाओं की मिठास साफ़ झलकती है।
इस शैली के केंद्र में सबसे पहले नाज़ुक-ख़्याली आती है यानी तसव्वुरात को बेहद महीन, नफ़ीस और ख़ूबसूरत अंदाज़ में बरतना। शायर दिल की बात कहने के लिए आम लफ़्ज़ों के बजाय ऐसे क़ीमती और नाज़ुक अल्फ़ाज़ चुनते हैं जो मानी को और भी नर्म और दिलकश रंग दे दें।
इसके साथ ही लखनऊ स्कूल की दूसरी बड़ी पहचान है चटखते हुए बाहरी रंग। यहां शायरी महज़ एहसास का बयान नहीं रहती, बल्कि एक दिलकश तस्वीर का रूप ले लेती है रंगीन, ज़िंदा और नफ़ासत से भरपूर। शायर अपने कलाम में बाहरी ख़ूबसूरती, परियों-सी महबूबा, नाज़-ओ-अंदाज़ और दिलकश माहौल को बड़े हुस्न से उकेरते हैं।
तीसरी अहम ख़ासियत है भारी-भरकम और पुर शिकोह अल्फ़ाज़। लखनऊ के शायर अपनी ग़ज़लों में ऐसे ऊंचे, गूंजते हुए शब्दों का इस्तेमाल करते हैं जो कलाम को शानो-शौक़त और अदबी हैसियत देते हैं। इन अल्फ़ाज़ की धुन में लखनऊ की नवाबी संस्कृति की झलक अलग ही महसूस होती है।
माशूक़ों से उम्मीद-ए-वफ़ा रखते हो ‘नासिख़’
इमाम बख़्श नासिख़
नादाँ कोई दुनिया में नहीं तुम से ज़ियादा
इस स्कूल की चौथी पहचान है शानदार रूपकों का इस्तेमाल। नासिख़ से लेकर आतिश तक, शायर तश्बीह, इस्तिआरा और रूपक की मदद से एक-एक शेर में नई दुनिया बसाते हैं जिसमें कल्पना की उड़ान भी है और लफ़्ज़ों की चमक भी।
और आख़िर में, “लखनऊ स्कूल” की सबसे अलग बात यह है कि यह शायरी भावनाओं से ज़्यादा अदाओं और बाहरी ख़ूबसूरती को तरजीह देती है। यहां दर्द कम, अंदाज़ ज़्यादा; अश्क कम, अदा ज़्यादा; और जज़्बात से ज़्यादा उनकी पेशकश की नफ़ासत अहम होती है।
नासिख़ की ज़िंदगी: आराम, ऐश और आज़ादी
नासिख़ की शख़्सियत भी उतनी ही नायाब थी जितनी उनकी शायरी। बचपन में वालिद का इंतेकाल हो गया था, लेकिन एक मालदार व्यापारी ख़ुदा बख़्श ने उन्हें गोद लिया। परवरिश आलीशान, तालीम उम्दा, और बाद में वही जायदाद के वारिस भी बने। यानी ज़िंदगी की परेशानियों ने कभी नासिख़ के दामन को छुआ ही नहीं।
न शादी, न कोई घरेलू ज़िम्मेदारी। बस तीन शौक़: खाना, वर्जिश और शायरी। ये तीनों शौक़ उन्होंने जुनून की हद तक निभाए।
इसी वरज़िश के शौक़ पर हाज़िर-जवाब लखनवी उस्तादों ने उनको “पहेलवान-ए-सुख़न” का ख़िताब दिया और यह नाम उन पर चस्पां हो गया।
रश्क से नाम नहीं लेते कि सुन ले न कोई
इमाम बख़्श नासिख़
दिल ही दिल में उसे हम याद किया करते हैं
नासिख़ का लहजा: दिमाग़ को छूने वाला सौंदर्य
नासिख़ के कलाम में एक अजब सा ठहराव है। वो अपने मज़मून को शब्दों की भव्यता से सजाते हैं। उनके यहां दर्द-ओ-दिल का शोर कम है, लेकिन अल्फ़ाज़ की चमक-दमक बहुत है। उनका हर मिसरा एक शानदार रूपक का दरवाज़ा खोलता है:
“मिरा सीना है मशरिक़ आफ़्ताब-ए-दाग़-ए-हिज्रां का
इमाम बख़्श नासिख़
तुलू-ए-सुब्ह-ए-महशर चाक है मेरे गरेबां का”
ये शेर महज़ शेर नहीं, अल्फ़ाज़ की इमारत है। भव्य, विशाल, और कल्पना की ऊंची उड़ान से भरी। नासिख़ के लिए शब्द मायने से ज़्यादा अहम थे। उनकी कोशिश होती थी कि शब्दों को ऐसे जोड़ें कि एक नई तस्वीर, नया रूपक पैदा हो।
सियह-बख़्ती में कब कोई किसी का साथ देता है
इमाम बख़्श नासिख़
कि तारीकी में साया भी जुदा रहता है इंसां से
दिलचस्प बात यह है कि नासिख़ को अपनी शैली पर जितना नाज़ था, उतना ही वो मीर, सौदा और दर्द के भी चाहने वाले थे। यानी उन्होंने नई राह ज़रूर बनाई, लेकिन उस्तादों की क़द्र भी की।
आज के दौर में नासिख़ की अहमियत
समय के साथ जब लखनऊ और दिल्ली दोनों का रंग फीका पड़ा, दोनों स्कूलों की सीमाएं भी धुंधली हो गईं। नासिख़ को एक वक़्त पर “सतही” और “बनावटी” शायर भी कहा गया। लेकिन आधुनिक दौर में शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने नासिख़ की शायरी को नए नज़रिये से देखा और बताया कि नासिख़ के बिना उर्दू ग़ज़ल का इतिहास अधूरा है।
दरिया-ए-हुस्न और भी दो हाथ बढ़ गया
इमाम बख़्श नासिख़
अंगड़ाई उस ने नश्शे में ली जब उठा के हाथ
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