03-Jun-2025
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तरक़्क़ी-पसंद शायर अली सरदार जाफ़री: मेरे मुल्क की मिट्टी को कुछ कम न समझ

उर्दू अदब की दुनिया में सरदार जाफ़री एक ऐसा नाम हैं जिन्होंने शायरी को सिर्फ़ हुस्न और इश्क़ तक महदूद नहीं रखा, बल्कि उसे समाज, इंसानियत और बदलाव की ज़ुबान  बना दिया।

सरदार जाफ़री कहते हैं कि हमें आज भी कबीर की रहनुमाई की ज़रूरत है… एक नए यक़ीन, नए ईमान और नई मोहब्बत की तलाश है। उर्दू अदब की दुनिया में सरदार जाफ़री एक ऐसा नाम हैं जिन्होंने शायरी को सिर्फ़ हुस्न और इश्क़ तक महदूद नहीं रखा, बल्कि उसे समाज, इंसानियत और बदलाव की ज़ुबान  बना दिया। उन्होंने कलम से क्रांति की मशाल जलाई और अपने अशआर के ज़रिए इंसान को इंसान से जोड़ने की कोशिश की।

 शुरुआती ज़िंदगी और तालीम

अली सरदार जाफ़री का जन्म 29 नवंबर 1913 को उत्तर प्रदेश के बलरामपुर ज़िले में हुआ। उनके घर का ताल्लुक़ ईरान के मशहूर शहर शीराज़ से था, इसलिए उनके ख़ानदान में इल्म और अदब की रिवायत काफ़ी मज़बूत थी। उनका बचपन मुहर्रम की अज़ादारी और मीर अनीस के मरसियों की गूंज में गुज़रा। शायद यहीं से उनके दिल में अदब का बीज बोया गया।

शुरुआती पढ़ाई बलरामपुर और फिर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में हुई, लेकिन स्टूडेंट आंदोलन में शामिल होने के कारण उन्हें वहां से निकाला गया। बाद में उन्होंने दिल्ली और लखनऊ से तालीम हासिल की और इसी दौरान वो सज्जाद ज़हीर, मजाज़, सिब्ते हसन जैसे प्रगतिशील विचारकों के संपर्क में आए।

तरक़्क़ी-पसंद सोच और सियासी सरगर्मियां

सरदार जाफ़री की शायरी सिर्फ़ ख़्वाबों की तामीर नहीं करती, बल्कि वो हक़ीक़त से टकराने का हौसला भी देती है। उनकी सोच तरक़्क़ी-पसंद (प्रगतिशील) थी और उन्होंने हमेशा मेहनतकश अवाम की आवाज़ बनकर लिखा।

कम्युनिस्ट पार्टी से उनका रिश्ता सिर्फ़ सियासी नहीं था, बल्कि एक नज़रिया था। उन्होंने ‘नया अदब’ और ‘पर्चम’ जैसी पत्रिकाओं के ज़रिए साहित्य में नए रंग भरे। बंबई (मुंबई) में पार्टी के साथ काम करते हुए उन्हें गिरफ़्तारी भी झेलनी पड़ी, लेकिन उन्होंने अपने उसूलों से कभी समझौता नहीं किया।

“लहू के हर क़तरे में इक सूरज छुपा है,
मेरे मुल्क की मिट्टी को कुछ कम न समझ।”

सरदार जाफ़री

एक शायर, आलोचक, और लेखक

सरदार जाफ़री सिर्फ़ शायर नहीं थे, वो एक आलोचक, कहानीकार, नाटककार और पत्रकार भी थे। उनका लिखा हर लफ़्ज़ अपने वक़्त की सच्चाई को बयां करता है। उन्होंने नज़्म को नए ढंग से पेश किया, अवामी ज़बान को अपनाया, और क्लासिकी शायरी से भी रिश्ता बनाए रखा। उनकी शायरी का लहज़ा बुलंद और ख़तीबाना था, लेकिन उसमें आम इंसान का दर्द और ख़्वाब दोनों मौजूद रहते थे। उनकी कुछ यादगार पंक्तियां इस तरह हैं:

“तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल,
हार जाने का हौसला है मुझे।”


“मेरे लहजे में दर्द भी है और आग भी,
मैंने शोले उठाए हैं आंसुओं के साथ।”


“किसी चिराग़ का एहसान क्या हमारे लिए,
हम अपने साए से खुद रौशनी निकालते हैं।”


“वो क़लम भी क्या क़लम है जो ज़बां बन के न उठे,
जो ग़मों का, सुख़नों का निशान बन के न उठे।”

सरदार जाफ़री

अदब से आगे: दस्तावेज़ी फ़िल्में और रिसर्च

सरदार जाफ़री ने सिर्फ़ किताबों तक ही खुद को सीमित नहीं रखा। उन्होंने संत कबीर, इक़बाल और आज़ादी की जद्दोजहद पर दस्तावेज़ी फिल्में बनाईं। साथ ही मीर और ग़ालिब के कलाम को देवनागरी लिपि में सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया, जिससे उर्दू अदब को नई पहचान मिली।

उनका एक बड़ा और अहम काम था ,शायरी में इमेजरी (चित्रात्मकता) पर रिसर्च। उन्होंने “अलिफ़” अक्षर से शुरू होकर 20 हज़ार से ज़्यादा शब्द और तराकीब इकट्ठा कीं, लेकिन अफ़सोस, ये काम अधूरा रह गया। सरदार जाफ़री के शायरी संग्रहों में शामिल हैं:

  • परवाज़ (1944)
  • नई दुनिया को सलाम (1946)
  • ख़ून की लकीर (1949)
  • अमन का सितारा (1950)
  • एशिया जाग उठा (1964)
  • एक ख़्वाब और (1965)
  • लहू पुकारता है (1978)

इन मजमुओं में आप उनके अशआर के ज़रिए इंक़लाब की सरगर्मी, अमन की चाहत, और इंसानियत की पुकार साफ़ सुन सकते हैं।

फ़िल्मी और टीवी में सरदार जाफ़री

सरदार जाफ़री की शोहरत को आम जन तक पहुंचाने में टीवी ने भी अहम किरदार निभाया। 1980 के दशक में दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ उनका मशहूर प्रोग्राम “कैसे-कैसे लोग”, जिसमें उन्होंने उर्दू अदब, तहज़ीब, और समाजी मसलों पर शायराना और तन्क़ीदी अंदाज़ में चर्चा की। ये प्रोग्राम उन्हें घर-घर तक ले गया और उन्हें एक अदीब से ज़्यादा एक आवाज़ में बदल दिया।

सम्मान और अंतरराष्ट्रीय पहचान

सरदार जाफ़री को देश-विदेश में सराहा गया। उन्हें कई सम्मान मिले जैसे

  • ज्ञानपीठ पुरस्कार
  • साहित्य अकादमी पुरस्कार
  • सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड
  • पद्मश्री

इसके अलावा, कई प्रदेशीय उर्दू अकादमियों और संस्थाओं ने भी उन्हें सम्मानित किया। उन्होंने 40 से ज़्यादा मुल्कों का सफ़र किया और उर्दू ज़बान का एक सच्चा सफ़ीर बनकर दुनिया को अदब और अमन का पैग़ाम दिया। ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में वो दिल और दूसरे शारीरिक रोगों से जूझते रहे। 1 अगस्त 2000 को मुंबई में उनका इंतक़ाल हुआ और उन्हें जुहू के कब्रिस्तान में दफ़नाया गया। मगर उनकी आवाज़, उनके अल्फ़ाज़ आज भी हमसे बात करते हैं।

डॉ. वहीद अख़्तर कहते हैं: जाफ़री के ज़ेहन में शियावाद, मार्क्सवाद, इन्क़लाबी जज़्बात और इंसानी दर्द सब एक साथ चलते थे। वो शायर को आलोचक और फ़िक्र करने वाला इंसान बनाते हैं।

सरदार जाफ़री ने जो अदबी विरासत छोड़ी है, वो सिर्फ़ किताबों का अम्बार नहीं है, बल्कि सोचने की एक नई राह है। इंसानियत को जोड़ने, सच्चाई से लड़ने और मोहब्बत फैलाने की राह।

ये भी पढ़ें: मुनीर नियाज़ी: इज़हार, तख़य्युल और तन्हाई का शायर

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