भारत के पड़ोसी मुल्क़ का एक ऐसा लोकगीत जिसे अपने देश के लोगों ने अपनाकर उसे बखूबी सराहा और मशहूर किया। अठारहवीं शताब्दी में जब अफ़ग़ानिस्तान से रोहिल्ला पठान हिंदुस्तान आए तो वो अपने साथ ‘चहारबैत’ लोकगीत लेकर आए। चहारबैत को पश्तो ज़ुबान में चारबैतो या शरवेह या उर्दू में पठानी राग कहा जाता है। ये एक ख़ास तरह का लोकगीत है।
रामपुर रियासत के पहले नवाब फैज़ुल्लाह ख़ान के शासनकाल में मुस्तकीम ख़ान के बेटे अब्दुल करीम ख़ान अपने कुछ रिश्तेदारों के कहने पर अफ़ग़ानिस्तान से रामपुर आए और चहारबैत लोकगीत लिखा।
अब्दुल करीम ख़ान ने एक अखाड़ा (सिंगिंग क्लब) बनाकर अपने सैकड़ों शागिर्दों को चहारबैत सिखाना शुरू किया। जिनमें से छह शागिर्दों को ख़लीफा बनाया गया। मेहनतकश पश्तून( अफ़गानिस्तान की आबादी का सबसे बड़ा जातीय समूह) लोग दिन भर खेतों में हल चलाते और रात को किसी जगह पर इकट्ठा होकर महफ़िल जमाते थे। रात के अंधेरे में चहारबैत गाए जाते थे। उस वक्त ये मनोरंजन का एक लोकप्रिय साधन बन गया था।
चहारबैत के गायकों को रामपुर के नवाब के दरबार में सम्मान दिया जाता था। रामपुर के नवाब कल्बे अली ख़ान इस गायन शैली के संरक्षक बन गए थे। उन्होंने चारबैत-गायन को बढ़ावा दिया और उनके कहने पर नवाब हर साल रामपुर के बाग बेनजीर में मेला बेनज़ीर नाम एक उत्सव का आयोजन किया करते थे। जिसमें एक हफ्ते तक चारबैत के जुलूस निकाले जाते थे।
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