03-Jun-2025
Homeहिन्दीबदलते समय में विलुप्त होती भारतीय लोक नाट्य कलाएं

बदलते समय में विलुप्त होती भारतीय लोक नाट्य कलाएं

भारतीय लोक नाट्य कलाएं हमारी सांस्कृतिक धरोहर का अहम हिस्सा रही हैं। इनमें नौटंकी, बहुरूपिया और जात्रा जैसी कलाएं लोक मनोरंजन का एक महत्वपूर्ण माध्यम रही हैं।

भारतीय लोक नाट्य कलाएं हमारी सांस्कृतिक धरोहर का अहम हिस्सा रही हैं। इनमें नौटंकी, बहुरूपिया और जात्रा जैसी कलाएं प्रमुख हैं, जो लोक मनोरंजन का एक महत्वपूर्ण माध्यम रही हैं। हालांकि, आधुनिक मनोरंजन के साधनों के बढ़ते प्रभाव के कारण ये कलाएं धीरे-धीरे विलुप्त हो रही हैं।

भारतीय लोक नाट्य नौटंकी

नौटंकी भारतीय रंगमंच की एक प्रमुख लोककला है, जिसमें गीत, नृत्य, कहानियां, हास्य और मेलोड्रामा का मिलाजुला रूप है। 19वीं शताब्दी के अंत में उत्तर प्रदेश में जन्मी यह कला गांवों में ख़ास तौर पर लोकप्रिय हुई। शुरूआती दौर में, धार्मिक और पौराणिक कहानियों को प्रस्तुत किया जाता था, लेकिन धीरे-धीरे इसने सामाजिक और नैतिक मुद्दों को उजागर करने का भी ज़रिया अपना लिया।

नौटंकी में गायन के ज़रिए से अभिनय किया जाता है, और इसे देखने के लिए पहले से ऐलान किया जाता है। इसकी कहानियां रामायण, महाभारत से लेकर फ़ारसी कथाओं जैसे लैला-मजनू तक फैली होती हैं। शौर्य, करुणा और प्रेम इसके प्रमुख तत्व हैं। पहले महिला भूमिकाएं पुरुष निभाते थे, लेकिन 1930 के दशक में महिलाओं की भागीदारी ने इसे नया आयाम दिया।

उत्तर प्रदेश में हाथरस, कानपुर, आगरा, मथुरा, झांसी और बिहार में पटना, नालंदा जैसे स्थान नौटंकी के केंद्र रहे हैं। यह राजस्थान, हरियाणा और मध्य प्रदेश में भी प्रचलित है। अलग-अलग जातियों और समुदायों के लोग इसमें शामिल होते हैं।

अवध के आख़िरी नवाब वाजिद अली शाह ने 19वीं शताब्दी में ‘रहस’ नाम से एक कला के रूप की शुरुआत की, जिसने नौटंकी को बढ़ावा दिया। स्वतंत्रता से पहले यह ग्रामीण मनोरंजन का अहम ज़रिया थी, लेकिन सिनेमा और टेलीविजन के आने से इसकी लोकप्रियता घटी। हालांकि, प्रयागराज जैसे स्थानों पर आयोजित महोत्सवों नौटंकी अभी भी ज़िंदा है। इसकी कहानियां पौराणिक कथाओं, लोक कथाओं और समकालीन विषयों को समेटे हुए हैं, जिससे यह भारतीय सांस्कृतिक धरोहर का अभिन्न हिस्सा बनी हुई है।

बहुरूपिया कला

बहुरूपिया कला भारत की प्राचीनतम लोक कलाओं में से एक है, जिसमें कलाकार अलग-अलग कैरेक्टर का रूप धारण कर लोगों का मनोरंजन करते हैं। यह कला कभी राजाओं और नवाबों के दरबार की रौनक हुआ करती थी, लेकिन आज आधुनिक मनोरंजन के साधनों के बढ़ते प्रभाव के कारण ये विलुप्ति की कगार पर है। पहले बहुरूपिया कलाकार मेला, धार्मिक आयोजनों और उत्सवों में अलग-अलग पौराणिक या ऐतिहासिक किरदारों का रूप धारण कर लोगों को आकर्षित करते थे। उनका अभिनय इतना स्वाभाविक होता था कि असली और नकली का भेद कर पाना मुश्किल हो जाता था। लेकिन अब यह कला केवल कुछ गिने-चुने कलाकारों तक सीमित रह गई है, जिनका जीवन यापन भी कठिन होता जा रहा है।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक बहुरूपिया कला का ज़िक्र प्राचीन ग्रंथों, बौद्ध और जैन साहित्य में भी मिलता है। हिंदू राजाओं के अलावा मुग़लों ने भी इस कला को संरक्षण दिया था। चीनी यात्री ह्वेनसांग और इतिहासकार अलबरूनी ने भी इसे अपनी पुस्तकों में दर्ज़ किया है। दक्षिण भारत में इसे ‘भेषिया’ कहा जाता है, जबकि उत्तर भारत में इसे स्वांग कला के नाम से जाना जाता है।

पहले समाज में बहुरूपियों को कलाकार का दर्जा मिला हुआ था। लेकिन समय के साथ यह कला हाशिए पर चली गई। रामलीला, नुक्कड़ नाटक और पारंपरिक नाटकों में बहुरूपियों की अहम भूमिका होती थी, लेकिन अब वे सड़क किनारे या छोटे-मोटे आयोजनों में नज़र आते हैं। पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव और डिजिटल मनोरंजन के युग में इस कला को पुनर्जीवित करने की ज़रूरत है, ताकि भारत की इस अनूठी परंपरा को संरक्षित किया जा सके।

बंगाल की नाट्यकला ‘जात्रा’

जात्रा बंगाल की एक पुरानी नाट्यकला है, जिसकी शुरुआत 18वीं शताब्दी में कोलकाता में हुई थी। इसे ‘जात्रा पाला’ भी कहा जाता था और इसे गाँवों और शहरों में धार्मिक और सांस्कृतिक अवसरों पर प्रस्तुत किया जाता था। इसमें गीत और नृत्य का ख़ूबसूरत मेल होता था, और इसके लिए ख़ास गीत भी बनाए जाते थे। जात्रा की कहानियाँ हिंदू महाकाव्यों और पौराणिक कथाओं से ली जाती थीं, जिसमें अलग-अलग पात्रों के बीच संवाद होते थे। यह खुले मैदानों में किया जाता था, जहां लोग चारों ओर बैठकर इसका आनंद लेते थे।

20वीं शताब्दी तक जात्रा ने बंगाल में देशभक्ति की भावना को मज़बूत करने में बड़ा योगदान दिया। यह एक घुमंतू नाटक शैली थी, जिसमें कलाकार गाँव-गाँव जाकर अपनी प्रस्तुतियाँ देते थे। जात्रा के नाटक आमतौर पर चार घंटे लंबे होते थे, जिनमें अभिनय, तेज़ संगीत, भव्य मंच और रंग-बिरंगी रोशनी का इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन समय के साथ आधुनिक मनोरंजन के साधनों के कारण इसकी लोकप्रियता कम होती गई और अब यह विलुप्त होने के कगार पर है।

गुजरात की भवाई नाट्यकला की तरह, जात्रा भी लोगों को जागरूक करने और मनोरंजन करने का एक ज़रिया थी। आज इस कला को बचाने और नई पीढ़ी तक पहुँचाने की ज़रूरत है, ताकि हमारी यह सांस्कृतिक धरोहर ज़िंदा रह सके।

ये भी पढ़ें: रिटायरमेंट के बाद मुसफिका हुसैन ने अपने शौक को बनाया बिजनेस, शुरू की रिबन आर्ट

आप हमें FacebookInstagramTwitter पर फ़ॉलो कर सकते हैं और हमारा YouTube चैनल भी सबस्क्राइब कर सकते हैं।

RELATED ARTICLES
ALSO READ

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular