“दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया
जोश मलीहाबादी
जब चली सर्द हवा मैंने तुझे याद किया”
ये शेर जब लबों से छलकता है तो दिल के ज़ख़्म ताज़ा हो उठते हैं। इस शेर के ख़ालिक़ हैं उर्दू अदब की बुलंद हस्ती – जोश मलीहाबादी। उनकी शख़्सियत, उनकी शायरी और उनकी जुस्तजू ने उर्दू अदब को एक नया रंग, एक नई रवानी बख़्शी।
शब्बीर हसन ख़ां नाम, पहले शब्बीर तख़ल्लुस करते थे फिर जोश इख़्तियार किया। जोश मलीहाबादी 1898, मलीहाबाद (उत्तर प्रदेश) में एक ऐसे घराने में पैदा हुए जो शायरी और अदब के मैदान में पहले से ही नामवर था। उनके वालिद बशीर अहमद ख़ां बशीर, दादा मुहम्मद अहमद ख़ां अहमद और परदादा फ़क़ीर मुहम्मद ख़ां गोया। सब के सब शायरी में माहिर थे। यूं कहा जाए कि जोश के रग-ओ-पे में शायरी दौड़ती थी, तो ग़लत न होगा।
उनका घराना जागीरदार था, ऐश-ओ-आराम की कोई कमी नहीं थी। लेकिन तालीम के मैदान में हालात कुछ कमज़ोर रहे। बावजूद इसके, इल्म से मोहब्बत ने उन्हें मुताले और ज़बानों में माहिरी की तरफ़ खींचा।
अदबी सफ़र की शुरआत
शायरी का सिलसिला शुरू हुआ तो उन्होंने मशहूर शायर अज़ीज़ लखनवी से इस्लाह लेना शुरू किया। उनके अंदाज़-ए-बयान में जोश था, तेवर थे, जुनून था और इसी जुनून ने उन्हें “जोश” बना दिया। रोज़ी-रोटी के सिलसिले में कई परेशानियां आईं। नौकरी की तलाश में दर-दर भटकना पड़ा। आख़िरकार हैदराबाद के “दारुल तर्जुमा उस्मानिया” में उन्हें नौकरी मिली। वहां कुछ अरसा काम करने के बाद दिल्ली आए और पत्रिका “कलीम” की बुनियाद डाली। इसके बाद ऑल इंडिया रेडियो से भी उनका रिश्ता रहा। धीरे-धीरे अदब की दुनिया में उनका नाम गूंजने लगा और फिर एक दिन सरकार की पत्रिका “आजकल” के वो संपादक भी बने। यहीं से जोश का अदबी सफ़र और भी रोशन हुआ।

जोश की शायरी: एक ताज़गी, एक तेवर
शायर-ए-इन्क़लाब
जोश मलीहाबादी को “शायर-ए-इन्क़िलाब” कहा जाता है। उनके कलाम में आज़ादी का जज़्बा, बग़ावत का सुर और जागरूकता की चिंगारी हर जगह मिलती है। उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के समर्थन में कई जोशीली नज़्में कहीं, जो जनमानस के दिलों तक पहुंचीं। उनके अशआर नौजवानों को आवाज़ देते थे, उन्हें इन्क़लाब के लिए उकसाते थे। हालांकि उनकी सियासी नज़्मों पर कई एतराज़ भी हुए कहा गया कि, जोश इन्क़लाब की असल तसव्वुर से वाक़िफ़ नहीं हैं। मगर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि देश में राजनीतिक जागरूकता फैलाने में जोश की नज़्मों ने अहम किरदार अदा किया।
“उठो अब मिट्टी से पैदा करो इक नया इंसान
जोश मलीहाबादी
कि जोश-ए-हिम्मत-ए-इन्सां से पत्थर भी पिघल जाए”
शायर-ए-फ़ितरत
जोश मलीहाबादी सिर्फ़ इन्क़िलाब के शायर नहीं थे। प्रकृति के सौंदर्य से भी उन्हें गहरी मुहब्बत थी। सुबह का उजाला, बरसात की नमी, बदली का चांद, गंगा के घाट की रौनक़। इन सब मंज़र को उन्होंने अपनी नज़्मों में इस तरह उतारा कि पढ़ते हुए दिल ताज़ा हो जाता है।उनकी नज़्मों में प्रकृति का ज़िक्र इतनी बार आता है कि उर्दू अदब में इस मिसाल कम ही देखने को मिलती है। ख़लील-उर-रहमान आज़मी जैसे नाक़िद भी इस पहलू के कायल रहे।
उनकी कुछ यादगार नज़्में हैं: बदली का चांद, अलबेली सुबह, बरसात की बहार और आबशार नग़मा। ये नज़्में खूबसूरत असबाब की चलती-फिरती तस्वीरें पेश करती हैं।
शायर-ए-शबाब
जोश मलीहाबादी के कलाम में इश्क़-ए-मजाज़ी यानी सांसारिक प्रेम का रंग भी खूब है। उनकी शायरी में मिलन की तलब और हुस्न की तारीफ़ ख़ूब झलकती है। विरह की आग और मिलन की चाहत उनके कलाम का अहम हिस्सा रही। उनकी कुछ ऐसी नज़्में: महतरानी, मालिन, जामुन वालियां, जवानी के दिन और पहली मुफ़ारक़त। इन नज़्मों में जोश ने प्रेम की सादगी, उसकी मासूमियत और उसकी बेचैनी को बड़ी खूबसूरती से पेश किया है।
बेहोशियों ने और ख़बरदार कर दिया
जोश मलीहाबादी
सोई जो अक़्ल रूह ने बेदार कर दिया
जोश मलीहाबादी की सबसे बड़ी ताकत उनकी शानदार और दिलकश ज़बान थी। उनके अल्फ़ाज़ धारदार थे, मगर उनमें नरमी भी थी। उनके पास लफ़्ज़ों का समंदर था और हर मौके़ के लिए सबसे मुनासिब अल्फ़ाज़ चुनने का हुनर भी। उन्हें “शब्दों का बादशाह” कहा जाता है। उनके रूपक (Metaphors) और उपमा (Similes) न सिर्फ़ हुस्न से भरपूर थे, बल्कि उनमें एक अलहदा जादू भी था। उनका कलाम सुनते या पढ़ते हुए एहसास होता है कि वो लफ़्ज़ों को भी अपने इशारे पर नचाते थे।
“हवा के क़तरों में रंगीन अफ़साने भर दिए
जोश मलीहाबादी
चांदनी की चादर पर मख़मली नज़्में लिख दीं”
जोश साहब जब बोलते थे तो महफ़िल में सन्नाटा छा जाता था। उनकी आवाज़ में बिजली-सी हरारत होती थी। उन्हें अपनी ज़बान पर ग़ुरूर था। यहां तक कि बड़े-बड़े उर्दूदां भी उनकी फुर्तीले जवाबों से चुप हो जाया करते थे। जोश को अपनी शायरी से इतना इश्क़ था कि कई दफ़ा बड़े ओहदे और सरकारी लाभ को भी ठुकरा दिया, बस अपनी कलम की आज़ादी बरकरार रखने के लिए।
बंटवारे के बाद, जोश मलीहाबादी पाकिस्तान चले गए। वहां भी उन्होंने इल्मी और अदबी कामों में हिस्सा लिया। ख़ासतौर पर उर्दू लुग़त (शब्दकोश) के संकलन में उनकी बड़ी भूमिका रही। मगर वतन से जुदाई का दर्द उनकी रचनाओं में अक्सर छलकता रहा। 1982 ईस्वी में पाकिस्तान में ही उनका इंतक़ाल हो गया।
हम गये थे उससे करने शिकवा-ए-दर्द फ़िराक़
जोश मलीहाबादी
मुस्कुराकर उसने देखा सब गिला जाता रहा
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