03-Jun-2025
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अख़्तरुल ईमान की ज़िंदगी, शायरी और फ़िल्मी दुनिया का सफ़र

अख़्तरुल ईमान उर्दू नज़्म के उन चंद चिराग़ों में से हैं जिन्होंने शायरी की रोशन राहों में एक नया रास्ता बनाया। ग़ज़ल की राह से हटकर नज़्म को अपना ज़रिया बनाया।

अख़्तरुल ईमान उर्दू नज़्म के उन चंद चिराग़ों में से हैं जिन्होंने शायरी की रोशन राहों में एक नया रास्ता बनाया। उन्होंने ग़ज़ल की राह से हटकर नज़्म को अपना ज़रिया बनाया और एक ऐसी सधी हुई, सादी ज़बान में बात की जो शुरू में तरन्नुम पसंद कानों को थोड़ी खुरदुरी लगी, मगर वक़्त के साथ उनकी यही जुबान नई नज़्म का पैमाना बन गई। उनकी शायरी चौंकाती नहीं, बल्कि धीरे-धीरे दिल में उतरती है और गहरी छाप छोड़ जाती है।

अख़्तरुल ईमान के लिए शायरी एक शौक या तफ़रीह नहीं थी, बल्कि इबादत थी। अपने मजमूआ “यादें” की तक़रीज़ (भूमिका) में उन्होंने लिखा था कि अगर शायरी को एक लफ़्ज़ में बयान करना हो तो वह “मज़हब” कहेंगे। उनके लिए शायरी में वही तक़द्दुस था जो किसी इबादत में होता है।

इस भरे शहर में कोई ऐसा नहीं
जो मुझे राह चलते को पहचान ले

अख़्तरुल ईमान

ज़िंदगी का शुरुआती दौर

अख़्तरुल ईमान का जन्म 12 नवंबर 1915 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर की छोटी सी बस्ती, क़िला पत्थरगढ़ में हुआ। उनका ताल्लुक़ एक ग़रीब घराने से था। उनके वालिद हाफ़िज़ फतह मुहम्मद पेशे से इमाम थे। घर में तंगी और मज़बूरियां बहुत थीं। मां-बाप में अक्सर झगड़े होते थे। मां मायके चली जातीं और अख़्तर बाप के पास रह जाते। शुरुआती दिनों में अख़्तर को क़ुरआन याद करने में लगा दिया गया, मगर किस्मत ने करवट ली और उनकी चाची उन्हें दिल्ली ले गईं। वहां उन्होंने मोईद-उल-इस्लाम अनाथालय में आठवीं तक तालीम हासिल की।

वहीं एक उस्ताद अब्दुल वाहिद ने अख़्तर के अंदर के अदीब और शायर को पहचान लिया और उन्हें लिखने की राह दिखाई। 17-18 साल की उम्र में अख़्तर शायरी करने लगे।

आगे की पढ़ाई उन्होंने फ़तेहपुरी स्कूल से की, जहां फ़ीस माफ़ हुई और वो ट्यूशन करके गुज़र-बसर करते रहे। 1937 में मैट्रिक पास करने के बाद वो एंग्लो-अरेबिक कॉलेज (अब ज़ाकिर हुसैन कॉलेज) में दाख़िल हुए।

कॉलेज में अख़्तर एक जोशीले छात्र थे। भाषण और रोमानी नज़्मों के लिए मशहूर हो गए थे। दोस्त उन्हें प्यार से “ब्लैक जापान” कहते थे। इसी दौर में उनकी मां ने उनकी शादी एक अनपढ़ लड़की से कर दी, जो जल्दी ही तलाक पर ख़त्म हो गई। अख़्तर का दिल अक्सर जल्दी-जल्दी किसी पर आ जाता था। एक क़ैसर नाम की शादीशुदा लड़की पर भी उनका दिल आया, जिसकी याद में उन्होंने बाद में अपनी मशहूर नज़्म “डासना स्टेशन का मुसाफ़िर” लिखी। पर ये इश्क़ भी मुकम्मल न हो सका।

धीरे-धीरे उन्होंने ये मान लिया कि उनकी आदर्श महबूबा इस दुनिया में नहीं है। इसी ख़्याल से उन्होंने एक काल्पनिक प्रेमिका “ज़ुल्फ़िया” का तसव्वुर किया, जो उनकी शायरी का रूहानी आधार बन गई।

मुश्किल राहें और फ़िल्मी दुनिया का सफ़र

बी.ए के बाद अख़तर को एम.ए में दाख़िला नहीं मिला क्योंकि कॉलेज वाले उन्हें डिसिप्लिन के लिए ख़तरा समझते थे। कुछ दिन बेकारी में गुज़रने के बाद अख़्तर मेरठ चले गए और “एशिया” के संपादन का काम संभाला। फिर दिल्ली लौटे और सप्लाई विभाग में नौकरी की। एक महीना भी नहीं हुआ था कि रेडियो स्टेशन में नौकरी मिली, मगर वहां की साजिशों का शिकार होकर नौकरी से निकाले गए।

मैं भटका भटका फिरता हूं खोज में तेरी जिस ने मुझ को
कितनी बार पुकारा लेकिन ढूंड न पाया अब तक तुझ को

अख़्तरुल ईमान

इसके बाद उन्होंने अलीगढ़ जाकर एम.ए में दाख़िला लिया, मगर ग़रीबी की वजह से पढ़ाई छोड़नी पड़ी और फिर पूना के शालीमार स्टूडियो में कहानीकार बन गए। आख़िरकार बंबई (मुंबई) पहुंचे और फिल्मों के लिए संवाद लिखने लगे। 1947 में उनकी शादी सुल्ताना मंसूरी से हुई, जो एक कामयाब शादी साबित हुई।

मुंबई में कामयाबी की दास्तान

मुंबई की फिल्मी दुनिया ने अख़्तर को खूब तजुर्बा दिया। यहां के झूठ, फरेब और मक्कारी को उन्होंने नज़दीक से देखा और समझा। इसी अनुभव ने उनकी सोच और शायरी को और गहरा बना दिया।

फिल्मी दुनिया में रहकर भी वो अपनी ज़बान और लेखन की पाकीज़गी पर कोई समझौता नहीं करते थे। एक बार दिलीप कुमार ने उनके संवाद में बदलाव करना चाहा, तो अख़तर ने साफ़ कह दिया कि अगर बदलाव चाहिए तो वो ख़ुद करेंगे, किसी और को अपनी तहरीर में कतर-ब्योंत( कतौटी) करने नहीं देंगे। इसी तरह जावेद अख़तर से भी एक बार तूतू-मैंमैं हो गई थी जब उन्होंने अख़तरुल ईमान के एक मिसरे पर एतराज़ किया था।

एहसास की आवाज़ बनी शायरी

अख़्तरुल ईमान अपनी शायरी के सबसे अच्छे आलोचक ख़ुद थे। उन्होंने हमेशा अपने मजमूओं की भूमिका लिखकर पाठकों को सही रुख़ दिखाया। उनकी शायरी सिर्फ़ जज़्बात का इज़हार नहीं थी, बल्कि अपने दौर के इंसानी और सामाजिक समझौतों की गवाही थी।

सोचा न था कि आएगा ये दिन भी फिर कभी
इक बार हम मिले हैं ज़रा मुस्कुरा तो लें।    

अख़्तरुल ईमान

उनका कहना था कि उनकी शायरी जुनून की नहीं, बल्कि एहसास की आवाज़ है।

अदबी योगदान और इनामात

अख़्तरुल ईमान ने करीब 100 से ज़्यादा फ़िल्मों के लिए संवाद लिखे। ‘वक़्त’ और ‘धरम पुत्र’ के संवादों के लिए उन्हें फिल्मफेयर अवार्ड मिला। उनकी नज़्मों के दस मजमूए प्रकाशित हुए:

  • गर्दाब
  • सब रंग
  • तारीक सय्यारा
  • आबजू
  • यादें (जिस पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला)
  • बिंत लम्हात (उत्तर प्रदेश और मीर एकेडमी का इनाम)
  • नया आहंग (महाराष्ट्र उर्दू अकादमी का ऐवार्ड)
  • सर-ओ-सामाँ (इक़बाल सम्मान और दिल्ली उर्दू अकादमी से अवार्ड)
  • ज़मीन ज़मीन
  • ज़मिस्ताँ सर्द-मोहरी

तीन बार ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए भी नामज़द हुए।

अख़्तरुल ईमान का आख़िरी सफ़र

9 मार्च 1996 को दिल की बीमारी से उनका इंतकाल हुआ। उनके साथ उर्दू नज़्म का एक सुनहरा दौर भी रुख़सत हो गया। अख़्तरुल ईमान ने शायरी में ये साबित किया कि साधी और सीधी ज़बान में भी दिलों को छूने वाली बातें कही जा सकती हैं। 

दिन के उजाले सांझ की लाली रात के अंधियारे से कोई
मुझ को आवाज़ें देता है आओ आओ आओ आओ

मेरी रूह की ज्वाला मुझ को फूंक रही है धीरे धीरे
मेरी आग भड़क उट्ठी है कोई बुझाओ कोई बुझाओ

अख़्तरुल ईमान

ये भी पढ़ें: शायर-ए-इंक़लाब: जोश मलीहाबादी की ज़िंदगी और अदबी सफ़र

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