“दर्द-ओ-तासीर के लिहाज़ से ‘मोमिन’ का कलाम ‘ग़ालिब’ से श्रेष्ठ और ‘ज़ौक़’ से श्रेष्ठतम है।”
ये अल्फाज़ थे मौलाना हसरत मोहानी के, एक ऐसे शख़्स के जिनके अपने कलाम ने उन्हें उर्दू अदब की सबसे बुलंद पायदानों पर ला खड़ा किया। सैयद फ़ज़लुल हसन, जिसे दुनिया हसरत मोहानी के नाम से जानती है, महज़ एक नाम नहीं, एक तहरीक थे। एक दरिया थे जिसमें शायरी की रवानी, सियासत का तूफ़ान, सूफ़ियाना तस़व़्वुर और इंकलाब की चिंगारी एक साथ मौजज़न थी। हसरत मोहानी की ज़िंदगी की कहानी सिर्फ़ एक शख़्स की नहीं, बल्कि हिंदुस्तान के उस दौर की दास्तान है जब ज़हन, ज़ुबान और ज़मीर हर तरफ़ से आज़ादी की अलख जगा रहे थे।
मोहान से अलीगढ़ तक: बग़ावत की पहली आहट
हसरत मोहानी की पैदाइश 1881 में उन्नाव के क़स्बा मोहान में हुई, एक जागीरदाराना घराने में। अवध की तहज़ीब और अदब ने उनकी इब्तिदाई (प्रारंभिक) तालीम में रंग भरा। बचपन से ही उनकी ज़हानत और हाज़िर-दिमागी ज़ाहिर होने लगी थी। मिडिल और एंट्रेंस के इम्तिहानों में अव्वलयात (प्रथम श्रेणी) हासिल कर जब वो अलीगढ़ के मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज पहुंचे, तो उनकी सादगी और देसी अंदाज़ पर ‘ख़ाला अम्मां’ कहकर मज़ाक उड़ाया गया। मगर ये वो शख़्सियत थी जिसे किसी ‘ख़िताब’ से नहीं, बल्कि अपने इल्म और फ़िक्र से पहचाना जाना था।
‘हसरत’ की भी क़ुबूल हो मथुरा में हाज़िरी
हसरत मोहानी
सुनते हैं आशिक़ों पे तुम्हारा करम है आज
अलीगढ़ में उन्होंने शे’र-ओ-सुख़न की महफ़िलों में जान डाल दी। उनकी तक़रीरें यूनीयन हाल में गूंजती थीं और सियासत पर उनकी बेबाक राय अंग्रेज़-परस्त कॉलेज अधिकारियों को बेचैन करती थी। 1902 में उनके एक मुशायरे पर ‘अश्लीलता’ का इल्ज़ाम लगाकर उन्हें कॉलेज से निकाला जाना, दरअसल उनकी आज़ादी-पसंद सोच पर पहला सियासी हमला था। लेकिन हसरत, जो बाद में ‘शायर-ए-इंकलाब’ कहलाए।
हसरत मोहानी और ‘हज़रत कृष्ण अलैहिर्रहमा’: एक अनोखा सूफ़ी रिश्ता
हसरत मोहानी की शख़्सियत इतनी रंगारंग थी कि हर पहलू हैरत में डाल देता है, और ऐसा ही एक दिलकश पहलू था उनका भगवान कृष्ण के प्रति गहरा झुकाव। उर्दू शायरी और सूफ़ी मत से वाबस्ता (जुड़े हुए) हसरत साहब के बारे में एक बात बेहद मशहूर है कि वो अपने पास हमेशा एक बांसुरी रखा करते थे। यह बांसुरी, जिसे अक्सर कृष्ण से जोड़ा जाता है, उनके इस अनोखे अक़ीदे (विश्वास) की एक ख़ास निशानी थी।
हसरत मोहानी सिर्फ़ कृष्ण पर लिखने वाले एक शायर नहीं थे, बल्कि उन्हें वो एक ऐसे मुक़द्दस (पवित्र) हस्ती मानते थे कि अपने कलाम में उन्हें ‘हज़रत कृष्ण अलैहिर्रहमा’ कहकर मुख़ातिब करते थे। ‘अलैहिर्रहमा’ का मतलब है ‘उन पर रहमत हो’, जो आमतौर पर बुज़ुर्गों या पैग़म्बरों के लिए इस्तेमाल होने वाला एक एहतरामी (सम्मानजनक) लफ्ज़ है।
मथुरा कि नगर है आशिक़ी का
हसरत मोहानी
दम भरती है आरज़ू इसी का
हर ज़र्रा-ए-सर-ज़मीन-ए-गोकुल
दारा है जमाल-ए-दिलबरी का
उनके लिए कृष्ण भक्ति सिर्फ़ ज़ाहिरी पूजा पाठ नहीं थी, बल्कि एक सूफ़ीना अंदाज़-ए-नज़र थी। सूफ़ी मत में, ख़ुदा से मोहब्बत को इश्क़-ए-हक़ीक़ी (सच्चा प्रेम) कहा जाता है, और महबूब-ए-इलाही (ईश्वरीय प्रेमी) की तलाश में इंसान हर सरहद को पार कर जाता है। हसरत मोहानी ने कृष्ण को उसी हक़ीक़ी मोहब्बत के मज़हर (प्रतीक) के तौर पर देखा। कृष्ण की बांसुरी की धुनें उन्हें रूहानी सुकून देती थीं, और उन धुनों में वो अल्लाह के जलवे का दीदार करते थे।
पैग़ाम-ए-हयात-ए-जावेदां था
हसरत मोहानी
हर नग़्मा-ए-कृष्ण बांसुरी का
वो नूर-ए-सियाह या कि हसरत
सर-चश्मा फ़रोग़-ए-आगही का
ये हसरत साहब की वस्अत-ए-नज़र (दूरदर्शिता) और जम्हूरियत-ए-ख्याल (विचारों की उदारता) थी कि वो मज़हबी दीवारें तोड़कर इश्क़ और रूहानियत के साझा मैदान में खड़े हुए। उनकी कृष्ण भक्ति एक मिसाल है कि कैसे इश्क़-ए-इलाही (ईश्वरीय प्रेम) इंसान को हर मज़हब और हर ज़ात से ऊपर उठा देता है, और कैसे एक शायर अपने अल्फ़ाज़ से दिलों को जोड़ सकता है। यही हसरत मोहानी की अजमत थी।
पत्रकारिता और सियासत: कलम और ज़ंजीरों का रिश्ता
बी.ए. के बाद हसरत मोहानी ने आराम पसंद जागीरदारी छोड़कर मुल्क और अदब की ख़िदमत को अपना मक़सद बना लिया। उन्होंने अलीगढ़ से अपनी साहित्यिक और सियासी पत्रिका ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ का आग़ाज़ किया। यह पत्रिका सिर्फ़ अदबी नहीं, बल्कि सियासी इंकलाब का भी एक ज़रिया बनी। इसमें आज़ादी पसंदों के लेख छपते थे और अंग्रेज़ी हुकूमत की ज़्यादतियों का पर्दाफ़ाश किया जाता था।
इंडियन नेशनल कांग्रेस में शामिल होकर वो बाल गंगाधर तिलक के ‘गर्म दल’ से जुड़े। नरम दल के मोती लाल नेहरू और गोखले पर वो खुलकर नुक्ताचीनी करते थे। 1907 में सूरत अधिवेशन में जब तिलक कांग्रेस से अलग हुए, तो हसरत उनके साथ खड़े थे। वो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ ‘गोरिल्ला जंग’ के हामी थे।
“है मश्क़-ए-सुख़न जारी, चक्की की मशक़्क़त भी
हसरत मोहानी
इक तुर्फ़ा तमाशा है शायर की तबीयत भी।”
यह शेर उनकी 1908 की जेल यात्रा की दास्तान कहता है। ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ में छपे एक इंकलाबी लेख पर उन्हें 2 साल क़ैद बा मशक़्क़त की सज़ा मिली, जिसमें उनसे रोज़ाना एक मन गेहूं पिसवाया जाता था। जेल की सलाखें उनकी आज़ादी की रूह को क़ैद न कर सकीं, बल्कि उनके सियासी अफ़कार (विचारों) को और तेज़ कर गईं। 1914 और 1922 में भी उन्हें कई बार ज़ालिम अंग्रेज़ हुकूमत का सितम सहना पड़ा, मगर हर बार वो एक नए जोश और हौसले के साथ बाहर आए।
चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है
हसरत मोहानी
हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है
सियासी सफ़र: इंकलाब ज़िंदाबाद से पूर्ण स्वराज तक
हसरत मोहानी की सियासत किसी एक दायरे में क़ैद नहीं थी। 1921 में कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में, जब गांधीजी भी ‘डोमिनियन स्टेटस’ की बात कर रहे थे, हसरत मोहानी ने बेबाकी से ‘मुकम्मल आज़ादी’ (पूर्ण स्वराज) का प्रस्ताव रखा। उनकी यह दूरदर्शिता बताती है कि वो अपने वक़्त से कितना आगे थे।
उनकी सियासी इंकलाबी सोच ने उन्हें विभिन्न विचारधाराओं से जोड़ा। 1925 से उनका झुकाव कम्युनिज़्म की तरफ़ हुआ और 1926 में उन्होंने कानपुर में पहली कम्युनिस्ट कांफ्रेंस की सदारत की। इससे पहले वो मुस्लिम लीग के एक अधिवेशन की भी सदारत कर चुके थे और उसी के टिकट पर विधानसभा के लिए चुने भी गए थे। वो जमीअत उलमा के संस्थापकों में भी शामिल थे। शिबली नोमानी ने जब मज़ाक में उनसे कहा था, “तुम आदमी हो या जिन्न, पहले शायर थे, फिर पोलिटिशियन बन गए और अब बनिए भी हो गए!” — तो यह उनके कई रंगी सियासी शख़्सियत का ही आईना था।
‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ का नारा, जो आज़ादी की लड़ाई का सिलसिला बन गया, हसरत मोहानी की ही देन है। उन्होंने ही महात्मा गांधी को स्वदेशी आंदोलन की राह सुझाई और खुद भी उसे अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बनाया। धोबी से कपड़े इस्त्री करवाने के बजाय वो खुद घर में सिले, बग़ैर इस्त्री के कपड़े पहनते थे। यह उनकी सादगी, ईमानदारी और देश के प्रति उनके सच्चे इश्क़ का सबूत था।
शायरी: इश्क़ और आज़ादी का पैग़ाम
हसरत मोहानी की शायरी उनकी पहचान का सबसे रोशन पहलू है। उनकी ग़ज़लों में इश्क़-ए-हक़ीक़ी और इश्क़-ए-मिजाज़ी का एक ऐसा संगम मिलता है जो दिल को छू जाता है। उनकी ग़ज़लें, जैसे “चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है”, आज भी हर महफ़िल की शान हैं।
उनके इश्क़ में एक अजीब सी ख़ुद-मुख़्तारी थी। वो महबूब को पाने की हसरत नहीं रखते थे, बल्कि इश्क़ किए जाने की कैफ़ियत में डूबना पसंद करते थे। उनका इश्क़ अक्सर ख़याली ही रहा, जिसकी निशानदेही वो अपनी शायरी में बेधड़क करते थे।
“रानाई में हिस्सा है जो क़बरस की परी का नज़्ज़ारा है मस्हूर उसी जलवागरी का…”
“इटली में तो क्या मैं तो ये कहता हूं कि ‘हसरत’ दुनिया में न होगा कोई इस हुस्न का सानी।”
मगर इस सबके बावजूद, ‘हसरत’ कभी मायूस या ग़मगीं नहीं होते। उनकी शायरी में एक तरह की शगुफ़्तगी, दिल लगी और साहस हमेशा नुमायां रहता है। वो कहते हैं:
“क़ुव्वत-ए-इश्क़ भी क्या शय है कि हो कर मायूस जब कभी गिरने लगा हूं तो संभाला है मुझे।”
ये शेर उनकी शायरी में इश्क़ की ताक़त और ज़िंदगी के प्रति उनके अटूट यक़ीन को दर्शाता है। उनका कलाम सादा होने के बावजूद बेहद पुरअसर है, जो दिल के नाज़ुक एहसासात को पूरी सच्चाई और जानदारी के साथ पेश करता है। हसरत मोहानी का इल्म (ज्ञान) बेहद वसीअ (व्यापक) था। उन्होंने अपने असातिज़ा (उस्तादों) के कलाम को गहरे से पढ़ा और उससे फ़ायदा उठाने को कभी छुपाया नहीं-
“ग़ालिब-ओ-मुसहफ़ी-ओ-मीर-ओ-नसीम-ओ-मोमिन तबा-ए-‘हसरत’ ने उठाया है हर उस्ताद से फ़ैज़”
लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि उनका अपना कोई अलग रंग नहीं था। उनकी शायरी में एक ख़ुद का अंदाज़ था जो उन्हें किसी की नक़ल नहीं बनने देता था। ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ के ज़रिए उन्होंने कई गुमनाम शायरों को रोशन किया और शे’री अदब में आलोचना (क्रिटिसिज्म) का एक नया ज़ौक़ पैदा किया। उनकी तीन मुस्तक़िल (स्वतंत्र) किताबें – “मतरुकात-ए-सुख़न”, “मआइब-ए-सुख़न” और “मुहासिन-ए-सुख़न” – शेर की ख़ूबियों और ख़ामियों पर बहस करती हैं, जो उर्दू अदब में आलोचना के मैदान में मील का पत्थर साबित हुईं।
हसरत एक कसीर-उल-कलाम (बहुत ज़्यादा लिखने वाले) शायर थे। उन्होंने 13 दीवान (काव्य संग्रह) मुर्तब (संकलित) किए, और हर दीवान पर ख़ुद ही प्रस्तावना लिखी। उनके करीब सात हज़ार अशआर हैं, जिनमें से आधे से ज़्यादा जेल की ज़ंजीरों में लिखे गए थे। ये दिखाता है कि जेल की सख़्तियां भी उनकी रचनात्मकता को रोक नहीं पाई।
सादगी, दरवेश और एक लाफ़ानी विरासत
आज़ादी के बाद भी, संसद सदस्य होते हुए भी, हसरत मोहानी की ज़िंदगी सादगी और तक़वा (पवित्रता) की मिसाल रही। वो दिल्ली में एक छोटे से मकान में रहते थे, ख़ुद अपने घर का सौदा सामान ख़रीदते और पानी भरते थे। जागीरदाराना घराने से होने के बावजूद, उन्होंने कभी किसी ओहदे या दौलत की परवाह नहीं की। थर्ड क्लास में सफ़र करना और यक्का (घोड़ा गाड़ी) पर चलना उनकी फ़क़ीरी और ज़मीन से जुड़े रहने की आदत को दर्शाता है। सियासत उन्हें रास नहीं आई और न ही वो सियासत को रास आए, लेकिन उनका सियासी संघर्ष इतिहास में दर्ज हो गया।
मौलाना हसरत मोहानी का इंतक़ाल 13 मई 1951 को लखनऊ में हुआ। उनकी वफ़ात के बाद भी, वो ‘शायर-ए-इंकलाब’ के तौर पर उर्दू अदब और भारतीय इतिहास में हमेशा ज़िंदा रहेंगे। उनकी शायरी, उनके इंकलाबी अफ़कार और उनकी बेमिसाल शख़्सियत आने वाली नस्लों के लिए हमेशा मिसाल बनी रहेगी। हसरत मोहानी सिर्फ़ एक शायर नहीं थे, वो एक ज़ीस्त (जीवन) थे, एक फ़िक्र थे, और एक पैग़ाम थे – आज़ादी, मुहब्बत और सच्चाई का पैग़ाम।
‘तेरी महफ़िल से उठाता ग़ैर मुझ को क्या मजाल
मौलाना हसरत मोहानी
देखता था मैं कि तू ने भी इशारा कर दिया’
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