03-Jun-2025
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उर्दू और फ़ारसी के समंदर, ग़ज़ल के ख़ुदा-ए-सुख़न शायर मीर तक़ी मीर 

लफ़्ज़-ओ-मानी के शहंशाह, उर्दू और फ़ारसी के समंदर, ग़ज़ल के बेताज बादशाह और बेमिसाल शायर मीर तक़ी ‘मीर’ की शख़्सियत को लफ़्जों में नहीं बंया किया जा सकता है। मीर को ख़ुदा-ए-सुख़न कहा जाता है।

लफ़्ज़-ओ-मानी के शहंशाह, उर्दू और फ़ारसी के समंदर, ग़ज़ल के बेताज बादशाह और बेमिसाल शायर मीर तक़ी ‘मीर’ की शख़्सियत को लफ़्जों में नहीं बंया किया जा सकता है। मीर को ख़ुदा-ए-सुख़न कहा जाता है। उनकी शायराना अज़मत का इससे बढ़कर सबूत क्या होगा कि ज़माने के मिज़ाजों में बदलाव के बावजूद उनकी शायरी की अज़मत का सिक्का हर दौर में चल रहा है। 

”कहा मैंने कितना है गुल का सबात
कली ने यह सुनकर तबस्सुम किया”

इमाम बख़्श नासिख़, ग़ालिब, क़ाएम, मुसहफ़ी, ज़ौक़ हों या हसरत मोहानी, मीर के चाहने वाले आपको हर ज़माने में मिलेंगे। जैसे मीर अपने शेर कह जाते थे वैसे अशरात लिखना हर दौर के शायरों के दिलों में ख़्वाहिश बसी रही। 

मीर तक़ी मीर, साभार: Poetistic

”अब तो जाते हैं बुत-कदे से ‘मीर’

फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया”

”तुम कभी मीर को चाहो कि वो चाहें हैं तुम्हें
और हम लोग तो सब उनका अदब करते हैं”

मीर तक़ी मीर का असल नाम मोहम्मद तक़ी था। उनके वालिद, अली मुत्तक़ी अपने ज़माने के साहिब-ए-करामत बुज़ुर्ग थे। उनके बाप-दादा हिजाज़ जो सऊदी अरब का एक इलाका है वहां से  हिन्दुस्तान आए थे और कुछ वक्त हैदराबाद और अहमदाबाद में गुज़ार कर आगरा में बस गए थे। सन 1723 में मीर आगरा में ही पैदा हुए। मीर की उम्र जब ग्यारह-बारह साल की थी, उनके वालिद का इंतकाल हो गया।

”राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या”

वालिद की वफ़ात के बाद उनके सौतेले भाई मुहम्मद हसन ने उनके सर पर मोहब्बत का हाथ नहीं रखा। वो बड़ी बेबसी की हालत में करीब चौदह साल की उम्र में दिल्ली आ गए। दिल्ली में समसाम उद्दौला शाह नवाज़ ख़ान, अमीर-उल-उमरा उनके वालिद के चाहने वालों में से थे। उन्होंने उनके लिए हर दिन का एक रुपया मुक़र्रर कर दिया जो उनको नादिर शाह के हमले तक मिलता रहा। समसाम उद्दौला नादिर शाही क़तल-ओ-ग़ारत में सन् 1739 में मारे गए। आमदनी का ज़रिया बंद हो जाने की वजह से मीर को आगरा वापस जाना पड़ा लेकिन इस बार आगरा उनके लिए पहले से भी बड़ा अज़ाब बन गया। कहा जाता है कि नादिर शाह ने अपने मरने की झूठी अफ़वाह फैलाने के बदले में दिल्ली में एक ही दिन में 20-22 हज़ार लोगों को मार दिया था और भयानक लूट मचाई थी।

मीर तक़ी मीर, साभार: हिंदीकुंज.कॉम

उस वक्त शाही दरबार में फ़ारसी शायरी को ज़्यादा तवज्जो दी जाती थी। मीर तक़ी मीर को उर्दू में शेर कहने का तरग़ीब अमरोहा के सैयद सआदत अली ने दी।

”दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है

ये नगर सौ मर्तबा लूटा गया”

कहा जाता है कि मीर को अपनी एक रिश्तेदार से इश्क़ हो गया था जिसे उनके घर वालों ने पसंद नहीं किया और उनको आगरा छोड़ना पड़ा। वो फिर दिल्ली आए और अपने सौतेले भाई के मामूं और अपने वक़्त के विद्वान सिराजउद्दीन आरज़ू के पास ठहर कर तालीम हासिल की। “नकात-उल-शोरा” में मीर ने उनको अपना उस्ताद कहा है लेकिन “ज़िक्र-ए-मीर” में मीर जफ़री अली अज़ीमाबादी और अमरोहा के सआदत अली ख़ान को अपना उस्ताद बताया है।

”होगा किसी दीवार के साए में पड़ा ‘मीर’

क्या रब्त मोहब्बत से उस आराम-तलब को

मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों

तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं”

आगरा में मीर की इश्क़बाज़ी ने उनको आरज़ू की नज़र से गिरा दिया।  अपने इस इश्क़ का तज़करा मीर ने अपनी मसनवी “ख़्वाब-ओ-ख़्याल” में किया है।  मुहब्बत ख़ुदा से हो या माशुका से, मीर तक़ी मीर की शायरी के बिना अधुरी-सी लगती है। कोई उसे इश्क का शायर कहता है तो कई दर्द का। 

”मुझ को शायर न कहो ‘मीर’ कि साहब मैं ने

दर्द ओ ग़म कितने किए जम्अ तो दीवान किया”

”मीर’ अमदन भी कोई मरता है

जान है तो जहान है प्यारे”

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