03-Jun-2025
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आदिवासी कला: तहज़ीब, तारीख़ और इसकी ख़ूबसूरती

आदिवासी कला (Indigenous Tribal Art) हिंदुस्तान और दुनिया भर की मुख़्तलिफ़ क़बीलों (जनजातियों) की तहज़ीब और विरासत का अहम हिस्सा है। ये सिर्फ़ एक आर्ट नहीं, बल्कि इनकी ज़िंदगी का आईना है। ये कला उनकी अक़ीदत, रस्मों-रिवाजों और उनके माहौल से गहरी वाबस्ता है। ट्राइबल आर्ट में नक़्क़ाशी, मूर्तिकला, कढ़ाई, धातु शिल्प और लोक चित्रकारी जैसी कई दिलचस्प शक्लें शामिल हैं। ये हुनर एक नस्ल से दूसरी नस्ल तक यूं ही चलता आ रहा है और अपनी असलियत को बरकरार रखे हुए है।

आदिवासी कला की तारीख़

आदिवासी कला की तारीख़ बहुत पुरानी है। इस सफ़र का आग़ाज़ प्राचीन दौर में गुफ़ाओं की दीवारों पर बनाए गए भित्ति चित्रों से हुआ था। भीमबेटका (मध्य प्रदेश) की गुफ़ाएं इस बात की गवाह है कि हज़ारों साल पहले इंसान ने अपनी जज़्बात और तजुर्बात को नक़्क़ाशी के ज़रिए उजागर किया था। वक़्त के साथ ये हुनर क़बीलों की ज़िंदगी का अहम हिस्सा बन गया और उसमें नई-नई शक्लें पैदा होती रहीं। 

क़दीम दौर में आदिवासी कला सिर्फ़ इबादत और समाजी रस्मों के लिए इस्तेमाल होती थी। क़बीले अपनी आर्ट के ज़रिए अपने देवी-देवताओं की पूजा करते थे, अपनी कहानियों और अफ़सानों को नक़्श करते थे, और अहम वाक़ियात को भी इसमें शामिल करते थे। ये कला उनके लिए एक ज़बान थी, जिससे वो अपनी तहज़ीब और रिवाजों को अगली नस्लों तक पहुंचाते थे।

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मौर्य और गुप्त दौर में आदिवासी कला

मौर्य और गुप्त दौर में आदिवासी कला पर रियासती हुकूमतों का असर बढ़ने लगा। इस दौर में मंदिरों, स्तूपों और महलों में आदिवासी कला की झलक साफ़ देखने को मिलती है। पत्थर, धातु और लकड़ी पर की गई बारीक नक़्क़ाशी और चित्रकारी इस ज़माने में काफ़ी आम हो गई थी।

आदिवासी कला को एक नई पहचान

आज के दौर में आदिवासी कला को एक नई पहचान मिल रही है। पहले ये सिर्फ़ क़बीलों तक महदूद थी, मगर अब इसे पूरी दुनिया में सराहा जा रहा है। कई फ़नकार अपने रिवायती हुनर को जदीद टेक्नोलॉजी के साथ मिलाकर एक नया रूप दे रहे हैं। हुकूमत और मुख़्तलिफ़ तंज़ीमें भी इस फ़न को बढ़ावा देने के लिए काम कर रही हैं।

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भारत की अहम आदिवासी कला शैलियां

भारत के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में कई जनजातियां रहती हैं, और हर जनजाति की अपनी ख़ास आर्ट होती है। आइए, कुछ अहम आदिवासी कला शैलियों पर नज़र डालते हैं:

वार्ली पेंटिंग (Warli Painting)

महाराष्ट्र के वार्ली जनजातियों की ये पुरानी आर्ट स्टाइल अपने सादगी भरे ख़ूबसूरत डिज़ाइन के लिए मशहूर है। ये आम तौर पर मिट्टी की दीवारों पर सफ़ेद रंग से बनाई जाती है। इसमें ज्यामितीय शेप्स जैसे कि दायरा, तक़रीबन और सीधी लकीरें शामिल होती हैं, जो इंसानी सरगर्मियों और क़ुदरत की हुस्न को बयान करती हैं। ये कला आमतौर पर चावल के आटे से बनाई जाती है।

मधुबनी पेंटिंग (Madhubani Painting)

बिहार के मिथिला इलाक़े से ताल्लुक़ रखने वाली ये आर्ट स्टाइल बेहद रंगीन और नफ़ीस होती है। इस पेंटिंग में देवी-देवताओं, शादियों और क़ुदरत के ख़ूबसूरत नज़ारों को दिखाया जाता है। इसमें हाथों से बने नैचुरल कलर्स का यूज किया जाता है और ये आमतौर पर कपड़े, दीवारों और काग़ज़ पर बनाई जाती है।

गोंड पेंटिंग (Gond Painting)

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और महाराष्ट्र में रहने वाली गोंड जनजाति की ये पेंटिंग अपने नायाब स्टाइल के लिए जानी जाती है। इसमें बारीक बिंदुओं और धारियों से नक़्श बनाए जाते हैं, जो आमतौर पर क़ुदरत और लोक कथाओं पर आधारित होते हैं। इसकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि हर आकृति के अंदर छोटी-छोटी डिज़ाइनों की डिटेलिंग होती है।

साओरा पेंटिंग (Saura Painting)

ओडिशा के साओरा क़बीले की ये पेंटिंग इबादत और तहज़ीबी मान्यताओं से जुड़ी हुई है। इसमें इंसानी शक्लें, क़ुदरत और मुख़्तलिफ़ मज़हबी निशानों को शामिल किया जाता है। ये वार्ली पेंटिंग से मिलती-जुलती होती है, मगर इसमें और ज़्यादा तफ़सील और बारीकी होती है।

भील पेंटिंग (Bhil Painting)

भील जनजाति की ये पेंटिंग बेहद रंगीन और ख़ूबसूरत होती है। इसमें बारीक़ बिंदियों के ज़रिए तस्वीरें बनाई जाती हैं, जो क़ुदरत, लोक कथाओं और इबादती शक्लों को बयान करती हैं। हर पेंटिंग में एक कहानी छुपी होती है, जो क़बीले के तौर-तरीक़ों और ज़िंदगी की फ़लसफ़े को दिखाती है।

टोडा एम्ब्रॉयडरी (Toda Embroidery)

तमिलनाडु के टोडा क़बीले की ये कढ़ाई बहुत ही नफ़ीस और हुस्न से तर होती है। इसमें ज्यामितीय डिज़ाइन का ख़ास ख़याल रखा जाता है। सफ़ेद कपड़े पर लाल और काले धागों से बारीक कढ़ाई की जाती है, जो इसे ख़ास बनाती है। ये आमतौर पर क़बीले की पारंपरिक पोशाकों में इस्तेमाल होती है।

डोकरा धातु कला (Dhokra Metal Art)

डोकरा आर्ट हिंदुस्तान की सबसे पुरानी धातु ढलाई शैलियों में से एक है। ये झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में बनाई जाती है। इसमें पीतल और कांसे की ख़ूबसूरत मूर्तियां और गहने बनाए जाते हैं। इस आर्ट की सबसे दिलचस्प बात ये है कि इसमें “लॉस्ट वैक्स कास्टिंग” टेक्निक का इस्तेमाल होता है, जिससे हर मूर्ति एक यूनीक होती है।

आदिवासी कला सिर्फ़ एक आर्ट नहीं, बल्कि ये हमारी ख़ुशहाल तहज़ीब और विरासत का आईना है। इसमें न सिर्फ़ हुस्न है, बल्कि इसमें क़बीलों की ज़िंदगी, उनके रस्मों-रिवाजों और क़ुदरत के साथ उनके रिश्ते की गहरी झलक मिलती है।

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