लखनऊ के नवाबी दौर में चांदी की चप्पलें शान-ओ-शौक़त की पहचान थीं। यह परंपरा आज भी ज़िंदा है, और इसे ज़िंदा रखने वाले आख़िरी कारीगर हैं मोहम्मद हुसैन। उनके दादा-परदादा ने यह कला ईरान से अमरोहा और फिर लखनऊ तक पहुंचाई। आज मोहम्मद हुसैन अपनी मेहनत और हुनर से इस विरासत को संभाल रहे हैं।
मोहम्मद हुसैन बताते हैं कि चांदी की चप्पल बनाना बेहद जटिल काम है। एक जोड़ी चप्पल बनाने में लगभग 7 से 10 दिन लगते हैं। सबसे पहले चमड़े की जूती तैयार की जाती हैं। इसके बाद चांदी की चादर काटी जाती है, जिस पर हाथ से बारीक नक़्क़ाशी की जाती है। आखिर में, इसमें कुंदन और रत्न जड़े जाते हैं और शाही लुक के लिए अंदर वेलवेट कपड़ा लगाया जाता है।
हुसैन कहते हैं कि एक चांदी की चप्पल में करीब 250 से 300 ग्राम चांदी लगती है। इसका तला रबर का होता है और बाकी हिस्सा चांदी का। चांदी पर नक़्क़ाशी करना उन्नत कौशल की मांग करता है, जो अब शायद ही किसी के पास है। वह बताते हैं कि नवाबों के दौर में चांदी के नागरे बनाना उनके पुरखों का काम था। आज भी शादी-ब्याह में चांदी की जूतियों की मांग हैं। शेरवानी और शादी के कपड़ों के विक्रेता ऑर्डर देते हैं, जिससे उनका काम चलता है।
हुसैन साहब को इस बात का दुख है कि अब यह कला सीखने वाला कोई नहीं है। हालांकि, YouTube जैसे प्लेटफ़ॉर्म से उनकी कहानी ने नई पहचान पाई है। इसके चलते उनके काम की मांग और प्रशंसा बढ़ी है। वह कहते हैं, “यह सिर्फ़ एक पेशा नहीं, बल्कि हमारे पूर्वजों की विरासत है।”
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