हर सुबह जब डल झील की लहरों पर सूरज की रोशनी झिलमिलाती हैं, दूर से एक नाविक की आवाज़ गूंजती है “Shikara चाहिए?” यही आवाज़ कश्मीर की पहचान बन चुकी है। Shikara अब सिर्फ़ एक नाव नहीं, बल्कि कश्मीर की संस्कृति, मेहनत और मोहब्बत का प्रतीक है। इन्हीं आवाज़ों के बीच Mohammad Rafiq जैसे कारीगर हर दिन अपनी आर्ट को नई ज़िंदगी देते हैं। उनके हाथों से निकला हर Shikara कश्मीर की रूह, मेहनत और मोहब्बत का दस्तख़त बन जाता है।
देवदार की लकड़ी से बनी कश्मीर की पहचान
कश्मीर के शिकारे सिर्फ़ ख़ूबसूरती के लिए ही नहीं जाने जाते, बल्कि उनकी कारीगरी और मज़बूती के लिए भी मशहूर हैं। ये पूरी तरह देवदार की लकड़ी से बनाए जाते हैं, क्योंकि ये लकड़ी पानी में ख़राब नहीं होती और सालों-साल टिकती है। इसकी नक़्क़ाशी और बनावट इतनी बारीक होती है कि हर Shikara एक कलाकृति की तरह दिखता है। कारीगरों के हाथों की मेहनत और दिल की लगन से तैयार हुआ Shikara सिर्फ़ एक नाव नहीं, बल्कि एक इमोशनल जुड़ाव है। हर Shikara अपने साथ कश्मीर की एक नई कहानी लेकर आता है उम्मीद, परंपरा और मेहनत की कहानी।

हुनर जो पीढ़ियों से चलता आ रहा है
डल झील के किनारे रहने वाले Mohammad Rafiq जैसे कारीगरों ने अपनी पूरी ज़िंदगी इसी आर्ट को मुख़लिस की है। Mohammad Rafiq बताते हैं, ‘ये काम हमारे बाप-दादाओं का है, हमने उनसे ही सीखा है, और जब तक ज़िंदा हैं, इसी काम में रहेंगे।’ उन्हें इस काम में तीस साल हो चुके हैं। उनके पिता ने उन्हें लकड़ी पहचानना, काटना, जोड़ना और उसकी बारीक नक़्क़ाशी करना सिखाया। अब वो चाहते हैं कि उनका बेटा भी इस परंपरा को आगे बढ़ाए। Mohammad Rafiq के लिए ये काम सिर्फ़ रोज़गार नहीं, बल्कि इबादत जैसा है। वो कहते हैं, “Shikara बनाना दिल से किया जाने वाला काम है। इसमें मशीन नहीं, सिर्फ़ हाथों की मेहनत चलती है। जो दिल से सीखेगा, वही इसे समझ पाएगा।”
मेहनत और समय से बनता है हर Shikara
एक Shikara तैयार करने में लगभग पांच से बारह दिन लगते हैं। अगर लगातार दिन-रात मेहनत की जाए, तो ये पांच दिन में भी बन सकता है। Shikara बनाने का प्रोसेस बेहद बारीक है होता है-पहले लकड़ी का बॉटम यानी नीचे का हिस्सा तैयार किया जाता है, फिर साइड के हिस्से और ऊपर की छत बनाई जाती है। हर कील गर्म करके लगाई जाती है, ताकि लकड़ी में दरार न पड़े। लेकिन ये काम पूरे साल नहीं चलता। ज़्यादातर दो से तीन महीने का ही सीज़न होता है-जब टूरिस्ट कश्मीर आते हैं और शिकारे में घूमने का लुत्फ़ उठाते हैं। सर्दियों में बर्फ़बारी की वजह से झील जम जाती है और काम ठप हो जाता है। रफ़ीक कहते हैं, ‘ये हाथ का काम है, मशीन का नहीं। हर Shikara अपनी मेहनत और वक्त मांगता है। इसलिए उतना ही ऑर्डर लेते हैं जितना पूरा कर सकें।’

बढ़ती मांग और बदलते हालात
पिछले कुछ सालों में टूरिज़्म बढ़ने के साथ शिकारे की मांग भी फिर से बढ़ी है। Mohammad Rafiq मुस्कराते हुए बताते हैं, ‘सीज़न में हम 10 से 15, कभी-कभी 20 शिकारे भी बनाते हैं।’ एक Shikara बनाने में लगभग तीन लाख रुपये तक का खर्च आता है। देवदार की लकड़ी भी अब महंगी हो चुकी है-10,000 रूपये से 11,000 रूपये प्रति क्विंटल तक मिलती है। जब उन्हें पता चलता है कि टूरिस्ट की बुकिंग आ रही है, तो ग्राहक पहले से बताते हैं कि उन्हें किस समय Shikara चाहिए। उस हिसाब से Mohammad Rafiq और उनके साथी काम की योजना बनाते हैं। Rafiq कहते हैं कि, “कभी 10 दिन लगते हैं, कभी 20 दिन, कभी महीना- लेकिन जो Shikara हम बनाते हैं, वो सालों तक चलता है।”
कारीगरी जो मकान से अलग, लेकिन रूह से जुड़ी है
Shikara बनाना मकान बनाने से बिल्कुल अलग है। Rafiq बताते हैं कि “मकान का कारीगर नहीं जानता कि Shikara कैसे बनता है। शिकारे में लकड़ी को ख़ास तरीके से काटी, मोड़ी और जोड़ी जाती है। कीलें भी गर्म करके लगाई जाती हैं। ये सब मकान कारीगर को नहीं आता। लेकिन Shikara बनाने वाला चाहे तो दो दिन में मकान बनाना सीख सकता है, क्योंकि उसे औज़ार चलाने का पूरा अनुभव होता है। मगर मकान का कारीगर अगर Shikara बनाना चाहे, तो उसे ये काम समझने में पांच-छह साल लग जाएंगे।” ये फर्क तकनीक के साथ-साथ सोच का भी है। Shikara बनाना दिल और धैर्य दोनों का खेल है। हर Shikara बनाने वाला कारीगर उसमें अपनी रूह डाल देता है।

डल झील की रौनक और कश्मीर की जान
डल झील की असली ख़ूबसूरती इन्हीं रंग-बिरंगे शिकारों से है। यही झील की शान हैं, यही कश्मीर की जान हैं। जब कोई Shikara साफ-सुथरा और ख़ूबसूरती से रंगा होता है, तो टूरिस्ट कहते हैं “यही Shikara सबसे अच्छा है, मैं इसी में घूमना चाहता हूं।” आज भी श्रीनगर में चार-पांच कारखाने हैं जहां शिकारें बनाए जाते हैं। कुछ बूढ़े कारीगर अब अपने बेटों के साथ ये काम कर रहे हैं, ताकि ये परंपरा ज़िंदा रहे।
Mohammad Rafiq कहते हैं, ‘Shikara सिर्फ़ लकड़ी का टुकड़ा नहीं है ये कश्मीर की पहचान है, हमारी रूह का हिस्सा है।’ डल झील में तैरते शिकारे, कारीगरों की मेहनत और टूरिस्ट की मुस्कान है। यही वो तस्वीर है, जो कश्मीर को जन्नत बनाती है। शिकारा सिर्फ़ एक नाव नहीं, बल्कि उस मिट्टी की ख़ुशबू है जहां से मोहब्बत, हुनर और उम्मीद की कहानी हर लहर के साथ तैरती है।
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