उर्दू अदब की तारीख़ में अल्ताफ़ हुसैन हाली का नाम बड़े ही अदब और एहतेराम से लिया जाता है। हाली महज़ एक शायर नहीं थे, बल्कि एक मुमताज़ आलोचक, असरदार जीवनीकार, समाज सुधारक और अदब को ज़िंदगी के असली मसाइल से जोड़ने वाले बुज़ुर्ग थे। उन्होंने उर्दू अदब को सिर्फ़ दिल बहलाने का ज़रिया नहीं समझा, बल्कि उसे समाजी बेदारी का औज़ार बनाया।
पानीपत से अदब की बुलंदियों तक
1837 ई. में पानीपत की ज़मीन पर पैदा होने वाले हाली का अस्ल नाम अल्ताफ़ हुसैन था। बचपन ही में वालिद का साया सर से उठ गया, लेकिन उनके बड़े भाई ने बड़ी मोहब्बत से उनकी परवरिश की। इब्तिदाई तालीम पानीपत में हुई और छोटी उम्र में ही कुरआन हिफ़्ज़ कर लिया। 17 बरस की उम्र में निकाह हो गया, लेकिन घर की ज़िम्मेदारियों ने उन्हें कुछ और सोचने पर मजबूर कर दिया।
एक दिन अचानक अपनी बीवी को मायके भेज कर वो ख़ाली हाथ और पैदल दिल्ली रवाना हो गए—जहां उनकी तालीम और शायरी का असल सफ़र शुरू हुआ।
ग़ालिब से रहनुमाई और शेफ़्ता से संवरता अंदाज़
दिल्ली में हाली मिर्ज़ा ग़ालिब की ख़िदमत में अक्सर हाज़िर रहते थे। ग़ालिब ने हाली की शायरी में सलाहियत देखकर उन्हें शे’र कहने की इजाज़त ही नहीं दी, बल्कि हौसला भी दिया। बाद में नवाब मुस्तफ़ा ख़ान शेफ़्ता के साथ उनकी मुलाक़ात हुई, जो उनको जहांगीराबाद ले गए और बच्चों का शिक्षक बना दिया। शेफ़्ता, जो ख़ुद भी उर्दू-फ़ारसी के मुमताज़ शायर थे, उन्होंने हाली की शायरी को निख़ारने में अहम किरदार अदा किया।
हाली ने शायरी में मीर को अपना रहनुमा माना, ना कि ग़ालिब को। मीर की तरह उन्होंने एहसास की सादगी और जज़्बात की ख़ुलूस को शायरी का मरकज़ बनाया।
अदब और समाज का संगम
हाली का मानना था कि अदब को सिर्फ़ ख़ूबसूरत अल्फ़ाज़ की बाज़ीगरी नहीं बनना चाहिए, बल्कि उसे समाज की तर्जुमानी करनी चाहिए। उनकी मशहूर मसनवी मद-ओ-जज़र-ए-इस्लाम जिसे मुसद्दस-ए-हाली भी कहा जाता है। इसमें उन्होंने मुसलमानों की सामाजिक और तालीमी गिरावट पर अफ़सोस जताया और जागरूकता की पुकार लगाई।
मां बाप और उस्ताद सब हैं ख़ुदा की रहमत
है रोक-टोक उन की हक़ में तुम्हारे ने’मत
अल्ताफ़ हुसैन हाली
आलोचना का आग़ाज़: मुक़द्दमा-ए-शे’र-ओ-शायरी
1893 में हाली का दीवान और उसके साथ प्रकाशित हुआ मुक़द्दमा-ए-शे’र-ओ-शायरी उर्दू की पहली मुकम्मल तन्क़ीदी किताब थी। इस किताब ने न सिर्फ़ शायरी की परिभाषा बदली, बल्कि आलोचना को एक नया रुख़ दिया। हाली ने इस में पश्चिमी सिद्धांतों का भी हवाला दिया लेकिन अपनी ज़मीन से जुड़ी तंज़ीम पेश की। आज उर्दू आलोचना की जो शक्ल है, उसकी बुनियाद मुक़द्दमा में ही मिलती है।
सदा एक ही रुख़ नहीं नाव चलती
चलो तुम उधर को हवा हो जिधर की
अल्ताफ़ हुसैन हाली
हाली की तीन मशहूर जीवनी नुमा किताबें—हयात-ए-सादी, यादगार-ए-ग़ालिब, और हयात-ए-जावेद—उर्दू में जीवनी लेखन की आला मिसालें हैं।
हयात-ए-सादी (1884): शेख़ सादी की ज़िंदगी और उनकी तसानीफ़ पर रौशनी डालती है।
यादगार-ए-ग़ालिब (1897): मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी और ज़िन्दगी को अवाम में मक़बूल बनाने में अहम किरदार निभाती है।
हयात-ए-जावेद (1901): सर सय्यद की ज़िंदगी के साथ-साथ उस दौर की तहज़ीब, सियासत और तालीम का भी दस्तावेज़ है।
इन किताबों में हाली ने महज़ हालात बयान नहीं किए, बल्कि एक तन्क़ीदी नज़र से उनका जायज़ा लिया। हाली ने औरतों के मसाइल को लेकर भी बहुत लिखा। उनकी नज़्में मुनाजात-ए-बेवा और चुप की दाद उस दौर की औरतों की आवाज़ बन गईं। उन्होंने मजालिस-उन-निसा लिखी जो एक किस्सागोई के अंदाज़ में तालीम-ए-निस्वां की ज़रूरत पर ज़ोर देती है।
शायरी के रंग
हाली ने ग़ज़ल, नज़्म, मसनवी, रुबाई, क़सीदा और मर्सिया—हर शक्ल में तहरीर किया। लेकिन उनका कमाल यह था कि उन्होंने हर शक्ल को हक़ीक़त से जोड़ा। उनकी नज़्में महज़ शायरी नहीं, बल्कि समाज की ज़ुबान थीं। उन्होंने शायरी में माशरती बहस और जदीद सोच की बुनियाद रखी। 1887 में रियासत हैदराबाद ने उन्हें पचहत्तर रुपये माहवार का वज़ीफ़ा दिया, जो बाद में सौ रुपये हो गया। इसके बाद हाली ने स्कूल की नौकरी छोड़ दी और पानीपत में मुक़ीम हो गए। वहीं उन्होंने अपना अदबी सफ़र जारी रखा।
1904 में उन्हें “शम्स-उल-उलमा” के ख़िताब से नवाज़ा गया। मगर हाली इस इज़्ज़त से ज़्यादा ख़ुश नहीं थे, क्योंकि अब उन्हें सरकारी महफ़िलों में हाज़िरी देनी पड़ती थी। आखिरकार दिसंबर 1914 में यह रौशन चिराग़ बुझ गया, लेकिन जाते-जाते वो अपने पीछे अदब, तालीम और सोच का एक ऐसा उजाला छोड़ गए, जो आज भी उर्दू तहज़ीब को रौशन करता है।
अल्ताफ़ हुसैन हाली उर्दू अदब की वो अज़ीम शख़्सियत हैं जिन्होंने न सिर्फ़ शायरी के रुजहानात बदले, बल्कि नस्र को भी सादा और असरदार बनाया। उन्होंने अदब को हक़ीक़त से जोड़ा, समाज की तर्जुमानी की और आने वाली नस्लों को सोचने, समझने और लिखने का सलीक़ा दिया।