इस्माइल मेरठी उर्दू अदब में एक ऐसी रोशन शख़्सियत हैं, जिनकी मौजूदगी के बग़ैर न तो बच्चों के साहित्य की तामीर मुकम्मल होती और न ही जदीद नज़्म का शुरुआती सफ़र। उन्हें सिर्फ़ “बच्चों का शायर” कह देना, उनके बहुआयामी फ़न और गहरी अदबी ख़िदमात के साथ इंसाफ़ नहीं करता। असल में वो एक ऐसे फ़नकार थे जिनके अंदर शिक्षक, शायर, तर्जुमा निगार, तजुर्बेकार और मुसलसल सीखने वाला इंसान, सब एक साथ सांस लेते थे। 1857 के बाद जब हिंदुस्तान की फ़िज़ा बदल रही थी और सर सैयद का तालीमी आंदोलन लोगों को इल्म और तर्क की तरफ़ बुला रहा था, उसी दौर में मेरठ के इस नौजवान ने उर्दू की दुनिया को एक नई ताज़गी और नई हवा दी।
इस्माइल मेरठी की पैदाइश 12 नवंबर 1844 को मेरठ में हुआ। घर का माहौल इल्म और तहज़ीब से भरा हुआ था। उनके वालिद शेख़ पीर बख़्श ने फ़ारसी की पहली क़िताबें उनके हाथ में थमाई। शुरूआती तालीम घर पर ही हुई और जल्द ही उन्होंने फ़ारसी में गहरी पकड़ बना ली। उनकी फ़ारसी की परवरिश उन मिर्ज़ा रहीम बेग के हाथों में हुई, जिनका नाम उर्दू-फ़ारसी दुनिया में एक ख़ास मुक़ाम रखता है। इसी ज़माने में उनकी रुचि अंग्रेज़ी शिक्षा और नए साइंस विषयों की तरफ़ भी बढ़ी।
या वफ़ा ही न थी ज़माने में
इस्माइल मेरठी
या मगर दोस्तों ने की ही नहीं
कम उम्र में ही उन्होंने टीचर्स ट्रेनिंग स्कूल में दाख़िला लेकर अध्यापन की सनद हासिल की। यहीं से उनकी पेशेवर ज़िंदगी की शुरुआत होती है। रुड़की कॉलेज में ओवरसियर कोर्स में दाख़िला लिया, मगर दिल क्लासरूम और किताबों में ही रम गया, इसलिए वो वापस लौट आए और 16 साल की उम्र में शिक्षा विभाग में क्लर्क बन गए। ये नौकरी सिर्फ़ रोज़गार नहीं थी। यही वो जगह थी जहां उन्होंने तालीम के असल मायने समझे। बाद में वो सहारनपुर में फ़ारसी के उस्ताद मुक़र्रर हुए और उनके पढ़ाने का अंदाज़ इतना आसान, इतना आत्मीय था कि छोटी-सी उम्र में ही शौहरत की तरह फैलने लगा।
जिस दौर में किताबें अंग्रेज़ ऑफिसर के लिए लिखी जाती थीं और बच्चों की तालीम को एक अलग दर्जा नहीं दिया जाता था, उसी समय इस्माइल मेरठी ने महसूस किया कि एक पूरी पीढ़ी ऐसी है जिसकी दुनिया में कोई झांकता ही नहीं। बच्चे क्या समझते हैं, किस भाषा में सोचते हैं, किस ढंग से सीखते हैं इन सवालों पर सबसे पहले उनका ध्यान गया। उन्होंने तय किया कि उर्दू में बच्चों के लिए सलीस, प्यारी, असरदार और नफ़ासत-भरी किताबें लिखी जाएं, जो न सिर्फ़ पढ़ाई का ज़रिया हों बल्कि बच्चों की शख़्सियत गढ़ने वाली भी हों।
दोस्ती और किसी ग़रज़ के लिए
इस्माइल मेरठी
वो तिजारत है दोस्ती ही नहीं
शायरी की शुरुआत भी दिलचस्प थी। दोस्तों की महफ़िल में कुछ अशआर कहे, तारीफ़ मिली तो हौसला बढ़ा और फिर ग़ज़ल की तरफ़ रुझान पैदा हुआ। शुरू में उन्होंने अपना काम छेड़छाड़ से बचाने के लिए फ़र्ज़ी नामों से शाए किया। जब उनका कलमी सफ़र आगे बढ़ा, तो नज़्म उनके दिल में घर कर गई। वो नज़्म जो उस ज़माने में उर्दू के लिए एक नई राह समझी जाती थी। उन्होंने अंग्रेज़ी कविताओं के अनुवाद किए और उन्हें उर्दू में ऐसे ढाला कि वो नज़्में अपने तर्जुमे पन से ज़्यादा उनकी मौलिकता के लिए पसंद की गई।
मुंशी ज़का उल्लाह और मुहम्मद हुसैन आज़ाद जैसे लोगों से मुलाक़ात ने उन्हें और परवाज़ दी। लोग अक्सर ये समझते हैं कि उर्दू की जदीद नज़्म की असल शुरुआत अंजुमन-ए-पंजाब के 1874 के उस मशहूर मुशायरे से हुई, लेकिन इतिहास की तह में झांकने पर मालूम होता है कि इस्माइल मेरठी और उनके हम ज़मां कलक़ पहले ही मेरठ में जदीद नज़्म का ढांचा तैयार कर रहे थे। यानी वो न सिर्फ़ पहले कदम रखने वालों में थे, बल्कि उनके बिना नई नज़्म का मुस्तक़बिल पूरा नहीं होता।
तारीफ़ उस ख़ुदा की जिस ने जहां बनाया
इस्माइल मेरठी
कैसी ज़मीं बनाई क्या आसमां बनाया
उनकी पहली किताब “रेज़ा-ए-जवाहर” 1885 में शाया हुई। इसमें ऐसी नज़्में थीं जो बच्चों की कल्पना, समझ और मासूमियत के बिल्कुल करीब थीं। साफ़-सुथरी भाषा, नरम आवाज़, तर्बियत की ख़ुशबू और दुनिया को देखने का रौशन अंदाज़। इन सबने उन्हें बच्चों की दुनिया में एक अपना-सा, भरोसेमंद नाम बना दिया। वो चाहते थे कि बच्चा किताब पढ़ते हुए सिर्फ़ नज़्म न पढ़े, बल्कि अपने वजूद में एक नयी रौशनी, एक नया नैतिक बल महसूस करें।
इस्माइल मेरठी की नज़्में सिर्फ़ बच्चों के लिए नहीं थीं। उनके शेर ज़िंदगी के गहरे तजुर्बों से पैदा होते थे। उनके यहां फ़रेबी ख़्वाहिशों या महज़ रुमानियत का रंग नहीं। बल्कि ज़िंदगी की हक़ीक़त, इंसान का दर्द, उम्मीद की शमा और दुनिया को समझने की सादगी थी। उनके अशआर पढ़कर महसूस होता है कि वो ज़िंदगी की छोटी-छोटी बातों को बड़े एहसास के साथ कह देते हैं।
तारीफ़ उस ख़ुदा की जिस ने जहां बनाया
इस्माइल मेरठी
कैसी ज़मीं बनाई क्या आसमां बनाया
है आज रुख़ हवा का मुआफ़िक़ तो चल निकल
इस्माइल मेरठी
कल की किसे ख़बर है किधर की हवा चले
इन अशआर में उनकी अदबी ज़हनियत, दुनिया-बे-दर्द में इंसान का सफ़र और तक़दीर के सामने इंसान का विनम्र खड़ा होना साफ़ नज़र आता है।
उन्होंने अपने फ़न से ज़्यादा अपनी नियत से काम किया। उर्दू की दुनिया में उनकी मौजूदगी इसलिए ज़रूरी है क्योंकि उन्होंने भाषा को बच्चों के लिए आसान बनाया, उसे उम्र की ज़रूरतों के मुताबिक़ ढाला और सीखने-सिखाने का एक पूरा तालीमी नक्शा तैयार किया। वो एक ऐसे मुहम्मद–तजुर्बाकार थे जिन्होंने उर्दू को न सिर्फ़ रौशन किया बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए रास्ते भी तैयार किए।
उनकी ज़िंदगी का आख़िरी दौर बीमारी से घिरा रहा। किडनी की तक़लीफ़, शूल की परेशानी, हुक्का पीने की आदत से बढ़ती ब्रॉन्काइटिस। इन सब ने उनकी सेहत को कमज़ोर कर दिया। लेकिन उनके क़लम की रोशनी कम नहीं हुई। उनकी शायरी उम्र के आख़िरी सालों में और हल्की, और पारदर्शी, और इंसानी रूह के करीब होती चली गई।
1 नवंबर 1917 को मेरठ में ही उनका इंतकाल हुआ। मगर उनका लिखा हुआ आज भी जारी है बच्चों की किताबों में, तालीमी नज़्मों में, जदीद उर्दू नज़्म की रिवायतों में और अदब की उस रोशनी में जो आने वाली पीढ़ियों के रास्ते रोशन करती रहती है।
इस्माइल मेरठी सिर्फ़ एक शायर नहीं, एक मुहिम थे। एक तहज़ीबी तहरीक थे। उर्दू को आसान, रौशन और इंसान के दिल के क़रीब लाने वाले फ़नकार थे। उनकी मौजूदगी उर्दू अदब की बुनियाद में एक ऐसे पत्थर की तरह है जिसे निकाला नहीं जा सकता, क्योंकि पूरी इमारत उसी पर टिकती है।
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