शायरी और हिंदी फिल्मों के दीवानों के लिए साहिर लुधियानवी का नाम किसी पहचान का मोहताज नहीं है। उर्दू शायरी के इस बेहतरीन शायर ने अपने अलग अंदाज़ और गहरे जज़्बात से न केवल उर्दू लिटरेचर को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया, बल्कि करोड़ों दिलों को भी छुआ। उनके अल्फ़ाज़ दर्द को आवाज़ देते हैं और मोहब्बत को मानी।
कभी ख़ुद पे, कभी हालात पे रोना आया
साहिर लुधियानवी
बात निकली, तो हर इक बात पे रोना आया
साहिर की पैदाइश 8 मार्च 1921 को लुधियाना में हुई थी। साहिर लुधियानवी मसऊदी का असली नाम अब्दुल हयी और तख़ल्लुस साहिर है। साहिर ने हाईस्कूल की तालीम लुधियाना के ख़ालसा से की। 1939 में जब साहिर लुधियानवी गवर्नमेंट कॉलेज से तालीम ले रहे थे तो छात्रों के बीच एक शायर के तौर पर मशहूर हो चुके थे। कॉलेज के दिनों में साहिर की तख़लीक़ सलाहियत और सियासी समझ दोनों ने ज़ोर पकड़ा। उन्होंने लुधियाना के सरकारी कॉलेज में दाख़िला लिया, लेकिन वहां से एक सहपाठी ईशर कौर के साथ प्रेम रिश्ते की वजह से निकाल दिए गए। इसके बाद उन्होंने लाहौर के दयाल सिंह कॉलेज में दाख़िला लिया, लेकिन सियासी सरगर्मियों में मौजूदगी की वजह से भी निकाल दिए गए। साहिर लुधियानवी एक रईस ख़ानदान से ताल्लुक रखते थे। लेकिन माता-पिता में अलगाव होने की वजह से साहिर को अपनी माता के साथ मुफ़लिसी में अपना बचपन बिताना पड़ा।

कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त
साहिर लुधियानवी
सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया
साहिर का पहला शायरी का मज़मुआ “तल्ख़ियां” 1944 में रिलीज़ हुआ। साहिर की शायरी न सिर्फ़ उनकी पीढ़ी को, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी मुतासिर करती हैं। साल 1949 में साहिर लुधियानवी लाहौर छोड़कर दिल्ली आ गए। दिल्ली से वे मुंबई गए, मुंबई में साहिर लुधियानवी ने कई उर्दू पत्रिकाओं में काम किया। साहिर लुधियानवी को पहला फ़िल्मी ब्रेक 1949 में ही ‘आज़ादी की राह पर’ फ़िल्म में मिला। लेकिन फ़िल्मी दुनिया में उन्हें पहचान फ़िल्म ‘नौजवान’ से मिली।
फिर खो न जाएं हम कहीं दुनिया की भीड़ में
साहिर लुधियानवी
मिलती है पास आने की मोहलत कभी कभी
साहिर ने फिल्मों के लिए कई ऐसे गीत लिखे, जो आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं। उनकी मुलाकात संगीतकार एस.डी. बर्मन से हुई, जिसने उनके करियर को एक नई दिशा दी। उनका पहला बड़ा हिट गीत था “ठंडी हवाएं लहरा के आएं”, जिसके बाद उनकी बर्मन के साथ जोड़ी ने कई यादगार गाने दिए। फिल्म दो कलियां की ये लाइन्स-
मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत कभी कभी
साहिर लुधियानवी
होती है दिलबरों की इनायत कभी कभी
फिल्मी दुनिया में उन्होंने अपनी शर्तों पर काम किया। साहिर ने गीतकारों की अहमियत को कायम करने के लिए विविध भारती पर गानों के साथ गीतकार का नाम प्रसारित करने की मांग की, जिसे बाद में स्वीकार किया गया। उनके लिखे गीतों में संगीत और भावनाओं का ऐसा संगम था, जिसने उन्हें हर उम्र के लोगों के बीच मक़बूल बना दिया।
साहिर की शायरी में एक अद्भुत तालमेल थी। उनकी रूमानी नज़्में नरमी से भरपूर थीं, तो उनकी सियासी और समझी नज़्मों किसानों, मज़दूरों और आम जनता की जद्दोजहद को अपनी नज़्मों में जगह दी। साहिर को उनकी साहित्यिक और सांस्कृतिक सेवाओं के लिए कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया। 1971 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
खुलते नहीं हैं रोज़ दरीचे बहार के
साहिर लुधियानवी
आती है जान-ए-मन ये क़यामत कभी कभी
साहिर की ज़िंदगी जद्दोजहद और कामयाबी की मिसाल है। उनकी शायरी में गहराई, सच्चाई और जज़्बाती जुड़ाव है, जिसने उन्हें उर्दू अदब का अमर शायर बना दिया। उनका इंतकाल 25 अक्टूबर 1980 को दिल का दौरा पड़ने से हुआ। लेकिन उनकी नज़्में और गाने आज भी उनकी मौजूदगी का अहसास कराती हैं।
ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहां
साहिर लुधियानवी
मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया
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