उर्दू एक ऐसी ज़बान है, जिसकी ख़ुशबू न हो तो हवा फीकी हो जाएगी. किसी शायर ने कहा है कि…
‘सलीके से जो हवाओं में ख़ुशबू घोल सकते हैं,
अभी कुछ लोग बाक़ी हैं जो उर्दू बोल सकते हैं।’
भारत में उर्दू को कई अलग-अलग नामों से पुकारा गया है, इस लिस्ट में हिंदवी , हिंदुस्तानी, ज़बान-ए-हिंद, हिंदी, ज़बान-ए-दिल्ली, रेख़्ता, दक्कनी, उर्दू-ए-मुअल्ला, ज़बान-ए-उर्दू जैसे अल्फाज़ शामिल हैं। उर्दू की पैदाइश 12वीं शताब्दी में उत्तर पश्चिमी भारत के क्षेत्रीय आम बोलचाल की भाषा से हुई थी। ये नई भाषा 12 वीं से 16 वीं शताब्दी के दौरान हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियों के गठजोड़ की एक नई नस्ल थी, जिसे गंगा-जमुनी तहज़ीब का एक मिला हुआ रूप माना गया।
लेखक मुंशी प्रेमचंद ने कहा है…
जिस तरह अंग्रेज़ों की ज़बान अंग्रेज़ी, जापान की जापानी, ईरान की ईरानी, चीन की चीनी है, इसी तरह हिन्दुस्तान की क़ौमी ज़बान को इसी वज़न पर हिन्दुस्तानी कहना मुनासिब ही नहीं बल्कि लाज़मी है।

लखनऊ एक ऐसा क़दीमी शहर जो अपनी तहज़ीब के लिए जाना जाता है। जहां तारीख़े सड़कों पर बातें करती हैं। एक ऐसा चमकता हीरा जिसने एक सदी से उर्दू ज़बान को रोशन किया है। उर्दू अदब और लिटरेचर के माहिर लोगों के लिए हमारे पास एक ऐसी चीज़ है जिसकी शुरुआत आज़ादी से पहले हुई थी। जहां पर हिंदुस्तान के मशहूर शायर आकर बैठा करते थे। लखनऊ के ऐतिहासिक अमीनाबाद में मौजूद है दानिश महल।

उर्दू ज़बान और लिटरेचर की एक पनाहगाह, जो पिछले कई दशकों से सिर उठाए खड़ा है। देश की आज़ादी से लेकर आज के नये भारत तक, दानिश महल एक सदी का मूक गवाह रहा है। आज दानिश महल एक ज़िंदा विरासत है। दानिश महल अनकहे किस्सों, ख़ज़ानों का घर और नायाब किताबों का एक लाइट हाउस है। जो लखनऊ के उर्दू अदबी दिल में मज़बूती से धड़क रहा है।
दानिश महल उर्दू किताबों में माहिर है। ये लखनऊ की सबसे पुरानी उर्दू किताबों की दुकान है जो सन 1939 में बनी थी। देश की आज़ादी के लिए अंग्रेज़ी हुकूमत से अपनी कलम और लेखनी के ज़रीये लोहा लेने वाले यहां परवानों की तरह बैठते थे। आज दानिश महल थोड़ा जर्जर है लेकिन अभी भी शाम-ए-अवध में अपने हिस्से की ख़ुशबू को समेटे हुए है।
दानिश महल का मतलब ‘Palace of Wisdom’ है। अमीनाबाद में मौजूद एक ख़ास उर्दू किताब की दुकान है। जब इसकी शुरूआत हुई थी तब यह एक फेमस उर्दू किताबों का पब्लिशिंग मकतब का आउटलेट था। पुराने दिनों में, दानिश महल शहर के अदबी दिग्गजों के मिलने और शायरों, इतिहासकारों और सियासत पर गुफ़्तगू करने का सेंटर प्लेस हुआ करता था।
नईम अहमद कहते हैं कि, दानिश महल का रिश्ता ठीक वैसे ही है जैसे एक मां का अपने बेटे से होता है ठीक वैसे ही दानिश महल का रिश्ता उर्दू से है। क्योंकि मां अपने बेटे को इस कदर चाहती है कि आपसे बयां नहीं किया जा सकता। इस तरह से हम लोग जो दानिश महल में उठते बैठते हैं हम लोग उर्दू से मोहब्बत करते हैं। यानी की अद्भुत जो एकदम बयान से बाहरी है। हम लोग उर्दू से बेइंतहा मोहब्बत करते हैं और उर्दू ही की वजह से आज भी यह दानिश महल कायम है। और उर्दू एक ज़बान नहीं बल्कि उर्दू एक तहज़ीब है जिसको उर्दू आती है मैं समझता हूं कि वो तहज़ीब बहुत करीब रहता है उससे कभी कोई गलत लफ़्ज़ नहीं निकलेगा, कोई गलत बात नहीं कहेगा। महल में आला और हर दिल अज़ीज़ मशहूर शायर जोश मलीहाबादी से लेकर फ़िराक़ गोरखपुरी भी आते थे। राम लाल, अब्दुल माजिद दरयाबादी, आले अहमद सुरूर, अब्दुल हक कुछ ऐसे उर्दू दानिशवर नाम हैं जो स्टोर के शुरुआती दिनों में अक्सर दुकान में आते थे।

नईम आज़ादी का ज़िक्र करते हुए बताते है कि आज़ादी वक़्त का मामला यह है वो दौर बहुत ज़बरदस्त रहा। उस वक्त जैसे जोश मलीहाबादी, हसरत, मोहानी, मौलाना आज़ाद साहब इन सब की किताबें भी हम लोग यहां रखते थे और जोश साहब की बात करें तो जोश मलीहाबादी अक्सर दानिश महल आया करते थे क्योंकि जोश साहब आज़ादी के बाद पाकिस्तान चले गए।
दानिश महल ने लखनऊ को बढ़ते और पनपते हुए देखा है। भारत की आज़ादी में दानिश महल का ख़ास हिस्सा रहा है। जो आज भी उर्दू के चाहने वालों के लिए इल्म का मकतब बना हुआ है। आज दानिश महल सिर्फ़ एक किताब की दुकान नहीं है। यह उर्दू बुक लवर्स और दानिशवर लोगों के लिए एक सख़ावती मरकज़ बना हुआ है। दानिश महल ने वक़्त के साथ तालमेल बिठाते हुए अपनी पुरानी दुनिया की किताब दुकान के कशिश को बनाए रखते हुए विरासत को ज़िंदा रखा है।
उर्दू ज़बान के जानकार फरासत हुसैन बताते हैं कि, ब्रिज नारायण चकबस्त जैसे शायर इसी लखनऊ के अंदर हुए है. इस सदी का गज़ल का सबसे बड़ा शायर पंडित रघुपति सहाय फ़िराक़ थे। उर्दू तो यही पैदा हुई है. खड़ी बोली और दूसरी बोलियों को मिलाकर ही उर्दू पैदा हुई । आज के ज़माने की बात करें तो नौजवान पीढ़ी में उर्दू पढ़ने का शौक पैदा हो रहा है। उर्दू ज़बान में ख़ास किस्म की मिठास है। सुषमा स्वराज से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी शानदार उर्दू बोलते थे और अशआर पढ़ते थे। उर्दू हर एक की ज़बान है। दानिश महल में मीर तक़ी मीर, हसरत मोहानी, सर सैयद अहमद ख़ान, मीर अनीस जैसे इल्मी रूहों वाले दबीरों की तस्वीरें लगी हैं। जो यहां की कहानी ख़ुद-ब-ख़ुद बयां कर रही है।

लखनऊ के अंदर उर्दू ने बहुत तरक्की की है। और लखनऊ की ज़बान जो है बहुत ऑथेंटिक मानी जाती है। लखनऊ के दो स्कूल बहुत मशहूर है। उर्दू के मामले में एक लखनऊ स्कूल और एक दिल्ली स्कूल। मगर जहां तक के ज़बान की सफाई का ताल्लुक़ है वह जो लखनऊ के अंदर पाई जाती है. वह दुनिया में कहीं नहीं पाई जाती है। इस बात को सारे लोग तस्लीम करते हैं. हालांकि हैदराबाद ने भी उर्दू की ख़िदमत की है। इसमें कोई दो राय नहीं है। बड़ी बड़ी किताबें, बड़े आला दर्जे की किताबें हैदराबाद से छपी है। उर्दू ज़बान का ताल्लुक़ और तहज़ीब का ताल्लुक़ लखनवी तहज़ीब से है।
लखनऊ शहर बेशक़ीमती गंगा-जमुनी तहज़ीब का सबसे अच्छा आइना रहा है। दानिश महल ने शायरों, दानिशवर लोगों, इल्मी और उर्दू लिटरेचर के सरपरस्तों के लिए शानदार बैठकी के तौर पर निशान बनाया। यह जगह उर्दू शायरी और लिटरेचर के चाहने वाले के लिए ख़ास जगह है।
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